SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [११. एकादशो ऽवसरः] [ आद्यप्रतिमाप्रपञ्चनम् ] 828) इत्थमास्थाय सम्यक्त्वं सम्यग्ज्ञानमुपास्यते । आम्नाययुक्तियोगाद्यैः संनिरूप्यं परंपरैः ॥१ 829 ) एककालसमवाप्तजन्मनोरंशमालिमहसो 'रिवर्षिभिः । एतयोः पृथगुपास्तिरुच्यते भिन्नयोः सहजलक्षणादपि ॥२ 830) आप्तमूक्तिसकलार्थसंग्रहे निश्चला परिणतिः सुमेरुवत् । बद्धरत्ननिवहे यथा नृणां किं स्विदेतदिति न प्ररूपयेत् ॥ ३ इस प्रकार सम्यग्दर्शन के विषयमें निष्ठा रखकर आचार्य परंपरागत उपदेश, प्रमाणनयात्मक युक्ति और योग (मन को एकाग्रता) आदि रूप उपायोंसे निर्दोष विचार करते हुए सम्यग्ज्ञान की उपासना की जाती है ॥ १॥ उक्त सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों ही यद्यपि सूर्य और उसके प्रकाश के समान युगपत् उत्पन्न होते हैं फिर भी वे लक्षणभेदसे भिन्न माने गये हैं। इसीलिये महर्षियों के द्वारा उन दोनोंकी भिन्नरूप से उपासना कही जाती है ॥ २ ॥ जिनेश्वरको दिव्यध्वनिमें संपूर्ण जीवादि पदार्थोंका संग्रह होता है । जिस प्रकार बंधे हुए रत्नसमूहमें मनुष्योंकी परिणति होती है उसी प्रकार उसमें मेरु पर्वत के समान जो निश्चल परिणति होती है व जिसमें यह क्या है, ऐसा संशय उत्पन्न नहीं होता है उसका नाम सम्यग्दर्शन है। रत्नों के ढेर में यह क्या है ऐसा संशय उत्पन्न होता है । तात्पर्य यह कि, जीवादिक पदार्थों में १) 1 D प्रमाणनयसप्तभङगीयोगेन. 2 कथयित्वा ज्ञाता । २) 1 सूर्यप्रकाशयोरिव. 2 मुनिमिः, 3PD दर्शनज्ञानयोः, 4 द्वयोः। ३) 1 जडित. 2 PD अथवा किंस्वित शब्दस्यार्थ:- किं भवति वा न भवति एतद्विकल्पम्. 3 इति न कथयेत् विकल्परूपम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy