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________________ २१४ - धर्मरत्नाकर: 824 ) विचित्रदानैर्भरतममुख्यैः सनत्कुमारादिभिरुग्र योगैः । अनेकभङ्ग्ग्या जिनपूजनादिभिः प्रभावनारच्यत रावणाद्यैः ॥ ६९ 825) पूतिकस्यो विलादेव्या विद्यातिशयतो रथम् । 'मुनिर्वज्रकुमाराख्यः सविभ्रममविभ्रमत् ॥७० 3 826) तद्दानज्ञानविज्ञानमहाध्वजमहादिभिः । ऐहिकापेक्षया मुक्तेः कुर्यान्मार्गप्रभावनाम् ॥ ७०* १ 827) युक्तीरिमा निरुपमास्त्वपरा निरूप्य [१०.६९ सम्यक्त्वमात्मनि नराः स्थिरतां प्रणीय । श्रीषेणवत्स कलकेवल सौख्यमार्गा निःश्रेयसं यदि हि शिश्रियिषेध्वमाध्वम् ॥ ७१ इति सम्यक्त्वाङ्गनिरूपणपरो दशमो ऽवसरः ॥ १० ॥ चक्रवर्ती भरतादी के द्वारा नाना प्रकार के दान से, सनत्कुमारादि महर्षियों के द्वारा तीव्र आतापनादि योगों से तथा रावणादिक राजाओं के द्वारा अनेक प्रकार की जिनपूजनादि के द्वारा जिनधर्म की प्रभावना की गई है ॥ ६९ ॥ वज्रकुमार मुनि ने अपनी विद्या के माहात्म्य से पूतिक राजाकी रानी उर्विला देवी के रथ को बडे ठाट-बाट से नगर में घुमाया था ।। ७० ॥ इसलिये दान, ज्ञान, विज्ञान - विद्या मंत्रादि और महाध्वज आदि पूजा विशेषों के द्वारा ऐहिक इच्छाओं से रहित होकर मार्ग की प्रभावना करनी चाहिये ।। ७० * १ ।। इसलिये हे भव्यजनो ! उपर्युक्त इन असाधारण युक्तियों से तथा अन्य भी युक्ति - यों के द्वारा देखकर - तत्त्व की परीक्षा कर के अपनी आत्मा में सम्यक्त्व को स्थिर कर श्रीषेण राजा के समान ( जो कि आगे शांतिनाथ तीर्थकर हुए हैं ) संपूर्ण केवल सौख्य के मार्ग से मोक्ष का आश्रय करना चाहिये ।। ७१ ॥ इस प्रकार सम्यक्त्व के अंगों का निरूपण करनेवाला दसवाँ अवसर समाप्त हुआ || १० || vvvv ६९ ) 1 रचिता । ७० ) 1 पूतिकनाम्नः राज्ञः 2 सहर्षम्. 3 भ्रामयामास । ७०* १ ) 1D ईहार हितः । ७१) 1 सेवध्वम्. 2 तिष्ठध्वम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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