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________________ -१०. ६८५१] - सम्यक्त्वाङ्गनिरूपणम् - २१३ 820) ज्ञाने तपसि पूजायां यतीनां यस्त्वसूयति ।। स्वर्गापवर्गभूर्लक्ष्मी नूनं तस्याप्यसूयति ॥ ६६ 821) विद्याभिर्वपुषा च वित्तविसरैः स्वेनापरैर्वा सदा स्वीकारावनकारणं हयुपकृतिः श्रेयोथिभिः कीर्त्यते । वेधातङ्कवतां महाव्रतवतां सौचित्यकद्वयावृति - र्यद्वत्सात्यकिनात्र पञ्चशतिकोपाचारि दिग्वाससाम् ॥ ६७ 822) बलिर्विघ्नं चक्रे मुनिपनिवहे हास्तिनपुरे विकुर्वाणो दृष्ट्वा क्षणमथ तथा वामनतया । त्रिविवावच्छिन्नावनितलपरिप्रार्थननिभात् प्रवर्धिष्णुविष्णुः परिशमितवान् वत्सलतया ॥ ६८ 823) आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥ ६८*१ जो ज्ञान, तप और पूजा के विषय में मुनियों से ईर्ष्या करता है, (उनके गुणों को सहन नहीं करता है) उससे स्वर्ग-मोक्ष को लक्ष्मी भी ईर्ष्या करती है (उसे वह नहीं प्राप्त होती है) ॥६६॥ विद्या, शरीरसामर्थ्य व धनसमूह से स्वयं अथवा दूसरों से मुनियों को स्वीकार कर उनका रक्षण करना इसे मुमुक्षु जन उपकार कहते हैं । जो महाव्रतधारी मुनि रोग से पीडित हैं उनकी मन, वचन व काय से शुश्रुषा कर के उन में स्वास्थ्य उत्पन्न करना, इसका नाम व्यावृति - वैयावृत्त्य है । यथा सात्यकि मुनिराज ने पाँच सौ मुनिराजों की सेवा करके उन्हें रोगमुक्त किया था ॥६७॥ बलि राजा ने जब हस्तिनापुर में मुनीश्वरों के समूह पर विघ्न (उपसर्ग) किया था तब उसे देखकर विष्णुकुमार मुनिने धर्मानुरागवश क्षणभर में वामन रूपसे विक्रिया कर के वौने बटुक के वेष को धारण कर के-तीन वितस्ति ( एक चतुर्थाश हाथ ) परिमित भूमि की याचना के मिष से अपने शरीर को बढाते हुए मुनियों के उस विघ्न को नष्ट किया था ॥६८॥ सम्यग्दृष्टि भव्य जीव को रत्नत्रय के तेज से-उससे अपने आप को विभूषित कर के अपने आत्मा की तथा दान, तप, जिनपूजा और विद्या के चमत्कार से जिनधर्म को भी प्रभावना करनी चाहिये ॥ ६८५१ ॥ ६६) 1 इष्टु [यष्ठु ] मसहनशील: यः. 2 भूमेः श्री. 3 सा स्वर्गापवर्गभूर्लक्ष्मीः तस्य इष्टु [ यष्टु ] मसहनशीला भवति । ६७) 1 द्रव्यसमूहैः. 2 नम्रीभवनम्, D विनयं. 3 वैयावृत्त्यम्. 4 सत्यप्रतिज्ञेन श्रावकेन, सात्यकिनाम्ना मुनिना, D मुनिना अकम्पनमुनिसंघाटके । ६८) 1 वामनरूपेण. 2 त्रिपदप्रमाणभूमिप्रार्थनतया, D वीषत्रीनि. ३ वर्धितः । ६८*१) 1D निरन्तरं. 2 प्रभावनीयः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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