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- धर्मरत्नाकरः -
815) ज्ञानदर्शनचरित्रवत्सु ' वै तेषु संघगुरुतुल्यंधर्मिषु । व्याजवजितधिया' हि यादृतिः सा विनीतिरिति कथ्यते बुधैः ॥ ६२
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816 ) आचार्यादिकदशके दुर्दर्शक' रुगादिभिः विशुद्धकर्मणा सौस्थ्यकृतिर्व्यावृतिंरीयते ॥ ६३
[ १०. ६२
817 ) जिने जिनागमे सूरौ तपः श्रुतपरायणे ।
सद्भावशुद्धि संपन्नो ऽनुरागो भक्तिरिष्यते ।। ६३*१ 818) अन्तःप्रमोदगर्भायाः परमेष्ठिगुणावलेः ।
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स्तुतिः प्रह्वतया' शश्वच्चाटूक्ति तामुशन्ति च ॥ ६४ 819) धर्म देशकपु रोगपञ्चके या पुलाकबकुशादिगर्भिते । श्रीदिगम्बरगणे ऽर्थविस्तरैः प्रार्चना भवति सा तु सत्कृतिः ॥ ६५
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र व उनके धारकों में तथा संघ, गुरु और साधर्मिक जनके भी विषय में निष्कपट बुद्धि से जो आदर का भाव रखा जाता है उसे पण्डित जन विनीति ( विनय ) कहते हैं ।। ६२ ।।
आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इन दस के तथा रोगादि के कारण जिनका देखना भी कष्टप्रद है ऐसे साधुजनों के विषय में जो विशुद्ध वृत्ति से - निर्मल परिणामों से - स्वास्थ्यजनक क्रिया की जाती है उसे नाम से व्यावृति कहा जाता है ।। ६३ ॥
जिन जिनागम और तपश्चरण एवं श्रुत में तत्पर रहनेवाले आचार्य में अन्तःकरण की प्रसन्नता से परिपूर्ण गुणानुराग हुआ करता है, उसे भक्ति कहते हैं ।। ६३* १ ॥
अन्तःकरण में हर्ष से परिपूर्ण जो परमेष्ठी के गुणसमूह का नम्रतापूर्वक निरन्तर कीर्तन किया जाता है उसे चाटूक्ति कहते हैं ॥ ६४ ॥
धर्मोपदेश करनेवाले आचार्यादिक के आगे स्थापित किये हुए चौरंगपर बुलाक कुशादिक साधुओं से दिगम्बर मुनियों की जो अर्थ विस्तारपूर्वक पूजा की जाती है उसे प्रार्चना कहते हैं ॥ ६५ ॥
६२ ) 1P चारित्रवत्सु वै. 2 PD तुल्यधर्मसु 3 पाखण्डवर्जित बुद्धया 4 आदर करणम्, D आदरः। ६३) 1 P कष्टप्राप्ते, D दुष्टदशासहिते. 2 स्वच्छताकृतिः. 3P ° व्यावृतिरीर्यते, वैयावृत्त्यकरणम्. ६३*१) 1 आचार्ये । ६४ ) 1 नम्रतया. 2 PD कथयन्ति । ६५ ) 1 प्रार्थना. 2 १ पुलाक २ वकुश ३ कुशील। ४ निर्ग्रन्था ५ स्नातका केवली ।