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- सम्यक्त्वाङ्गनिरूपणम् - 811) सुदतीसंगमासक्तं पुष्पदन्ततपस्विनम् ।
वारिषेणः कृतत्राणः स्थापयामास संयमे ॥५९*१ 812) व्यन्तर्या कृतलिङ्गविक्रियममुं भुक्तिक्षणे दुष्टया
वैशाखाह्वययोगिनं कृशतनुं श्रीचेलना श्राविका । दृष्ट्वा काण्डपटं प्रसार्य सहसा निर्विघ्नमाबूभुजत्
शुक्लध्यानसुपञ्जरान्तरगतो ऽतो ऽसावगात् केवलम् ॥ ६० 813) अनवरतमहिंसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने धर्मे ।
सर्वेष्वपि च सधर्मसु परमं वात्सल्यमवलम्ब्यम् ॥ ६०*१ 814) आदृतिव्यावृतिर्भक्तिचाटुक्तिः सत्कृतिः कृतिः ।
सधर्मसु च सौचित्तीकृतिर्वात्सल्यमुच्यते ॥ ६१ गया था उस समय 'धर्म की निन्दा होगी' इस भय से चेलना-जो कि ज्येष्ठा की बहिन थीउसे अपने घर ले गई । पश्चात् प्रसूत होनेपर वह फिर तप में लगी - स्थित हो गई थी)। दूसरा उदाहरण-चार्वाक आदि दर्शनों के प्रमुख विद्वान् व उनके आचार के दर्शक संभिन्नमति आदि (शतमति व महामति) दुष्ट मंत्रियों ने जब महाबल राजा को अपने मतों से मलिनचित्त किया था तब स्वयंबुद्ध मंत्रीने उसे जीवके अस्तित्व को स्पष्ट करनेवाली अनेक कथाओं के साथ तत्त्वसिद्धि करनेवाली युक्तियों से सद्धर्म में अतिशय स्थिर किया था ॥ ५९॥
तीसरा उदाहरण - सुदतीनामक अपनी पत्नी के संगम के लिये उत्कण्ठित हुए पुष्पदन्त तपस्वी को कुमार्ग से बचानेवाले वारिषेण मुनिने संयम में स्थिर किया था ॥ ५१+१॥ .
चौथा उदाहरण - आहार के समय दुष्ट व्यन्तरी के द्वारा जिसके पुरुषेन्द्रिय में विकार उत्पन्न किया गया था ऐसे कृश शरीरवाले वैशाखनामक मुनि को जब श्राविका श्री
चेलना रानीने देखा तब उसने उसी समय परदास्वरूप एक वस्त्र के टुकडे को फैलाकर उनको निविघ्न आहार दिया था। तत्पश्चात् वे मुनिराज शुक्ल ध्यानरूपी पिंजरे के भीतर बैठकर . केवलज्ञान को प्राप्त हुए ॥ ६०॥
सतत मुक्तिस्वरूप लक्ष्मी के कारणभूत अहिंसात्मक धर्म में और सभी साधर्मिक जनों में उत्कृष्ट वात्सल्य का आश्रय लेना चाहिये ।। ६०.१॥
साधर्मिक जन के विषय में जो आदृति (विनय), व्यावृति (सेवा - शुश्रूषा), भक्ति (गुणानुराग), सत्काररूप क्रिया की जाती है उसे वात्सल्य कहा जाता है ।। ६१ ॥
५९१) 1 P निजस्त्रीसंगमासक्तम्, D ब्राह्मणा पुत्री पुष्पदन्तस्य पत्नी। ६०) 1 D मुनि. 2 D अग्ने पटं. 3D ज्ञानं । ६१) 1 विनीति आदरम्, D आदरः विनयः चाटुकारोक्तिः. 2 सुस्थताकृतिः वयावृत्यकरणम्. 3 चाट उक्तिः . 4 P°सत्कृतेः।