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________________ २१० - धर्मरत्नाकर 807) संघकार्यं यतो ऽनेकधा मानवै - - स्तन्यते ऽतो यथायोग्यमालोच्य वै । निर्विवादं प्रबोध्यानिशं धार्मिको योज्यते तत्र सो ऽसौ स्थिरीकारिणा ॥ ५६ [ १०. ५६ 3 808) अथोपेक्षेत जायेत दवीर्यस्तत्त्वतो जनः । बंहीयांच' भवो ऽस्येत्थमनवस्था प्रथीयसी ॥ ५७ 809 ) अज्ञविज्ञ जनयोरुदाहृतं किंचिदेतदवबोधचारिणाम् । तत्परीषहमहोपसर्गकं किं करिष्यति कृतं दुरात्मकैः ॥ ५८ 810) ज्येष्ठां गर्भगरिष्ठिकां सुतपसि श्रीचेलनातिष्ठिपत् भिन्नादिकुमन्त्रिभिर्गुरु मतप्रष्ठक्रियादर्शकैः । सद्धर्मे हि महाबल' कृतमलं बुद्धः स्वयंपूर्वको जीवास्तित्वविकासिदण्डिकिकथा' प्रायः स्फुरद्युक्तिभिः ॥ ५९ संघ का कार्य चूंकि अनेक पुरुषों के द्वारा किया जाता है । इसीलिये स्थितिकरण अंग का परिपालक सम्यग्दृष्टि जीव यथायोग्य विचार करके तथा निर्विवाद उपदेश देकर धर्म से च्युत होनेवाले उस धार्मिक पुरुष को निरन्तर धर्म में योजित ( दृढ ) करता है । इसके विपरीत यदि वह उसकी उपेक्षा करता हैं तो वह तत्त्व से धर्म से दूर जायेगा - उस धर्म का त्याग कर देगा । इससे इसका संसारभ्रमण दीर्घ होगा । इस प्रकार से धर्म के विषय में अव्यवस्था बहुत होगी ॥५६-५७।। जिन्हें स्थितिकरण का ज्ञान है और जो स्थिरीकरण करते हैं उनके लिये अज्ञ और चतुर जन के कुछ उदाहरण दिये गये हैं । ( पूर्वोक्त प्रकार से यदि धार्मिक लोग अपने साधमि को धर्म में स्थिर करते हैं तो फिर ) दुष्टों के द्वारा किये गये परीषह और महोपसर्ग क्या कर सकेंगे ? कुछ भी नहीं । ( अर्थात् तब उस अवस्था में उनके द्वारा किया जानेवाला उपसर्ग भी व्यर्थ होगा ) ॥ ५८ ॥ चलना रानीने गर्भ के भारी भारको धारण करनेवाली ज्येष्ठा को प्रसूति के अनन्तर तपश्चरण में स्थिर किया था । ( अर्थात् सत्यकी मुनि से जब उसे अर्जिकाकी अवस्था में गर्भ ५६) 1 संधे । ५७) 1 D ज्ञानिनं. 2 P गरिष्ठ, D पटबुद्धि: 3D गरिष्ठा । ५८ ) 1 D कुमत्रिभि: महाबलिराज्ञः । ५९ ) 1 D राजानं. 2 दण्डिकराज्ञः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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