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________________ २०९ -१०. ५५] - सम्यक्त्वाबगनिरूपणम् - 804) कामक्रोधमदादिभिः सुतपस' संचाल्यमानं परं वारंवारमवार्यवेगबलिमिर्लोकत्रयी-हेपकै । तत्कालं द्वयलोकदुःखकथनप्रागल्भ्ययुग्युक्तिभिः स्थेयांस समयीकरोति यदि नो दूरं भवं द्राधयेत् ॥ ५३ 805) किं च संदिग्धनिर्वाहन वैः संघं विवर्धयन् । प्राप्ततत्त्वं त्यजन्नेकदोषतः समयी कथम् ॥ ५४ 806) हली घातितवान् पुत्रं स्वसम सर्वकर्मसु । कुक्षिभाविसुताशायां बद्धबुद्धिर्हि दुर्विधः ॥ ५५ । युग्मम् । जो काम, क्रोध एवं मद आदि अतिशय अजेय (बलिष्ठ) होने के कारण तीनों लोकोंको लज्जित (तिरस्कृत) करनेवाले हैं उनके द्वारा उत्तम तपसे बार-बार भ्रष्ट किये जानेवाले अन्य भव्य जीव को यदि कोई निर्मल सम्यग्दष्टि जीव दोनों लोकोंके दुःख को प्रगट करनेवाली प्रबल युक्तियों के द्वारा उसी समय धर्म में स्थिर नहीं करता है तो वह उसके व अपने संसार को अतिशय दीर्घ करता है । (धर्मसे च्युत होते हुए उक्त भव्य जीव के साथ वह स्वयं भी दीर्घकालतक संसार में परिभ्रमण करनेवाला होता है) ॥५३॥ __जिन लोगों के संयम के निर्वाह में संदेह बना हुआ है, (अर्थात् जो संयम को स्वीकार करके उसका निष्ठापूर्वक परिपालन करनेवाले नहीं हैं या उसे छोड भी सकते हैं) ऐसे नवीन दीक्षित साधुओं से जो अपने संघ को वृद्धिंगत करता है तथा जो किसी एक आध दोष के कारण प्राप्त तत्त्व-संयमनिष्ठ-अन्य पूर्वकालीन साधु को छोड देता है-संघ से पृथक् कर देता है-वह भला समयी-जिनशासन का भक्त-कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है। वह तो उस दरिद्र किसान के समान है जिसने गर्भ में अवस्थित भावी पुत्र की आशा में चित्त देकर अपने समान सब कामों में दक्ष पुत्र को मार डाला था । ५४-५५॥ ५३) 1 सकाशात्. 2 प्रतिमल्लरहितैः कामक्रोधादिभिः. 3 P लज्जकैराच्छादकैर्वा, D कोपादिभिः निन्द्यैः. 4 स्थितीकरणम्. 5 P श्रावकः, D समयवान. 6 PD अतिशयेन. 7 PD संसारम्. 8 PD दीर्घ करोति । ५४) 1 D संदेहं. 2 P विवेकी श्रावकः कथं भवति, D एक दोषम् अवलोक्य यः अवगणयति स कथं श्रावकः । ५५) 1 D पांवरः. 2 आत्मतुल्यम् । २७
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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