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________________ २०७ [. १०.५०० . धर्मं रत्नाकरः 3 801 ) क्षान्त्याद्यैर्दशधा गुणैरह रहे धर्म समावर्धयन् दर्पाद्दैववशात् क्वचिद्व्रतवतां जातं निगूहनम् । मातेवात्मभूव स वर्धकतमः सर्वज्ञभक् मायासंयमिनो ं निगूहति चुरां सूर्यस्य" रत्नोद्भवाम्" ॥ ५० 11 802) सिद्धानां भवभृन्मलैर्मलिनिमा किं जायतें कर्हिचित्' धूल्या किं गगनस्य भेकंमरणाद्दुर्गन्धितान्धे किम् । चारित्रं कुलपांसनो' यदि जनो वोढुं न शाशक्यते सद्धर्मस्य न तावता सुमतिभिर्मालिन्यमाम्नायते ।। ५१ 803 ) दोषं निगूहतिं न यो ऽन्यजनस्य जातं धर्मं न बृंहयति यो गुणसंपदोच्चैः । चित्रं किमत्र ननु दर्शनमस्य दूरं बाह्यो ह्यसौ समयतो saथि तथ्यबोधैः ।। ५२ उत्तम क्षमादिक दश प्रकार के गुणों से प्रतिदिन धर्म को बढानेवाला तथा अभिमान के वश होकर यदि किन्हीं व्रती जनों के कोई पाप (दोष) उत्पन्नं हुआ है तो उसे ढँकनेवाला भव्य जीव जैसे माता पुत्रों के सद्गुणों को बढाती है वैसे अपने और अन्य साधर्मिकों के गुणों को सर्वज्ञ के बढाता हुआ उक्त जन व्रती जनों के दोषों को इस प्रकार से ढँकता है जिस प्रकार भक्त - जिनेंद्र भक्त - सेठ ने कपटी संयमी के संयमी के वेष को धारण करनेवाले शूर्प (सूर्य) नामक चोर की - रत्नहारविषयक चोरी को ढँका था ॥ ५०॥ क्या सिद्ध परमात्माओं को कभी संसारी जीवों के पापमल से मलिनता हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती है । क्या धूलि से कभी आकाश के मलिनता होती है ? नहीं होती । तथा क्या मेंढक के मरने से समुद्र के दुर्गन्धता होती है ? नहीं होती । यह कारण है जो कुलको कलंकित करनेवाला कोई हीन मनुष्य यदि चारित्र को नहीं धारण कर सकता है तो इतने मात्र से विद्वान् जन धर्मकी मलिनता का ख्यापन नहीं किया करते हैं ॥ ५१ ॥ जो अन्य जन के उत्पन्न हुए दोष को नहीं ढँकता है तथा जो क्षमादि गुणरूप महती संपत्ति से धर्म को नहीं बढाता है, उससे सम्यग्दर्शन यदि दूर हो तो आश्चर्य ही क्या है ? सत्यज्ञानी अर्थात् सम्यग्ज्ञानी गणधरों ने उसे धर्म से बाहय - पापात्मा - कहा है ॥ ५२ ॥ ५०) 1 उत्तमक्षमादि. 2 दिनं दिनं. 3 गोपयन् दोषम्, D पापं 4 निजपुत्रादीनाम् 5 भव्यवर. पुण्डरीक:. 6 जिनभक्तः श्रेष्ठी. 7 D क्षुल्लकस्य 8 आच्छादयति 9 चोरम्. ( चौर्यम् ) 10 सूर्यनाम्नो ब्रह्मचारिणः. 11 उत्पन्नां चुराम् । ५१ ) 1 कदाचित्. 2PD मण्डूक, 3 समुद्रस्य 4 कुलविनाशकस्य. Dकुलविनाशक:. 5 D चरितुम् । ५२ ) 1 आच्छादयति 2 न वर्धयति 3जिनशासनात्. 4 कथितम् 5 सत्यज्ञानजिनैरित्यर्थः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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