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-१.. ४९.१] - सम्यक्त्वाङ्गनिरूपणम् - 797) अष्टौ कथा यथाख्याता दृक्शुद्धथै न कुतीर्थिषु ।
प्रशंसासंस्तवौ तेनुस्तथा तद्वैतवो जनाः ॥ ४८ 798) लोके शास्त्रामासे समयाभासे च देवताभासे ।
नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्तव्यममूढदृष्टित्वम् ॥ ४८*१ 799) तैलबिन्दोरिवाम्भस्सु वृथा तत्र बहिर्युति : ।
रसवत्स्यान यत्रान्तर्बोधो वैधाय धातुषु ॥ ४९ 800) कादम्बतार्क्ष्यगोसिंहपीठादिपतिषु स्वयम् ।
आगतेष्वपि नैवाभूद्रेवती मूढतावती ॥ ४९*१
निःशंकितादि आठ अंगों की कथायें जिस प्रकार सम्यग्दर्शनकी शुद्धि के लिये कहा गई हैं उस प्रकार कुतीथियों में-मिथ्यादृष्टियों के विषय में-नहीं कही गई हैं । इसलिये सम्यग्दर्शन की निर्मलता के लिये भव्यजन कुतीर्थियों को प्रशंसा और संस्तव न करें ॥४८॥
____ लोक में तत्त्व में रुचि रखनेवाले - निर्मल सम्यग्दृष्टि-जीव को शास्त्राभास-पूर्वापर विरोधादि दोषों से संयुक्त आगम, समयाभास-जिनमत से विरुद्ध वैशेषिक व सांख्य आदि मतान्तर-तथा देवताभास रागद्वेष से परिपूर्ण हरिहरादिक देवता विशेषों में निरन्तर अमूढदृष्टित्व को - परीक्षाप्रधान दृष्टिको धारण करना चाहिये ॥ ४८*१॥
जिस प्रकार पारा धातुओं के भीतर छेद कर देता है उस प्रकार जिस मनुष्य के अन्तरंग को अन्तर्बोध-अध्यात्मज्ञान-नहीं भेदता है, उस व्यक्ति का बाह्य प्रकाश-बाहिरो विद्वत्ता-पानी में फैली हुई तेल की बूंद के समान निरर्थक है ॥ ४९॥
हंसासन, गरुडासन, वृषभासन और सिंहासन आदि के अधिपति ऐसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश और जिनेश्वर (तीर्थकर) इनके स्वयं आनेपर भी रेवती रानी मूढता को प्राप्त नहीं हुई अर्थात् उसके तत्त्वश्रद्धान में मलिनता उत्पन्न नहीं हुई। (अभिप्राय यह है कि वन्दना भक्ति के लिये उत्तर मथुरा को प्राप्त हुए विद्याधर क्षुल्लक चन्द्रप्रभ ने जब रेवती रानी के शुद्ध सम्यग्दर्शन के परीक्षगार्थ क्रमशः ब्रह्मा आदि के रूपों को धारण कर प्रदर्शन किया तब उनके वन्दनार्थ अनेक मूढ जनों के जानेपर भी निर्मलतत्त्व श्रद्धा से संपन्न रेवती रानी नहीं गई । इसी से वह सम्यग्दर्शन के अमूढ दृष्टिनामक चतुर्थ अंग में प्रसिद्धि को प्राप्त हुई है)॥४९.१।।
४८) 1 निःशङकाद्यष्टौ कथा. 2 PD विस्तारयामासुः। ४८*१) D शास्त्रलक्षणरहितः । ४१*१) 1P हंसपतिब्रह्मा गरुडपतिविष्णुः गोपतिरीश्वरः सिंहासनपतिजिनः एते सर्वे मायाजनिता ज्ञात्वा रेवती न मूढमतिरभूत्. D हंसवाहनः ब्रह्मा, गरुडवाहनः विष्णु :, वृषभवाहन ईश्वरः ।