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________________ २०६ -धर्मरत्नाकरः [१.. ४६794) आयान्ति विध्ना नितरां हि निघ्ना धर्म दधानं परमं यतो माम् । धर्मश्च देवः समयो ऽफलो ऽतो ध्यायन्निदं स्याद्विचिकित्सकों न्यः॥४६ 795) तदुक्तम् क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु' भावेषु । द्रव्येषु पुरीपादिषु विचिकित्सा नैव कर्तव्या ॥ ४६*१ 796) स्नानोलनमौनवल्कलजटाजूटाक्षमालाजिनै मन्त्राधैरुपकल्पितं किमपि यद्यद्योगमुद्रादिभिः । अन्तर्ज्ञानचरित्रशुद्धिरहितं तत्सक्रियागौरवं नाशंसेन च संस्तुयात्समयवान् मिथ्यादृशां कहिचित् ॥ ४७ अनिष्ट के संयोग से उत्पन्न हुए विध्न निरन्तर पीडित करते हैं । सो इसका कारण कुछ धर्म नहीं है, किन्तु वह पूर्वोपार्जित कर्म ही है। धर्म तो बोये हुये बीज के समान उत्तम फलका ही देनेवाला है। इस प्रकार का जो हृदय में विचार किया करता है वह आगम, धर्म और देवके भी विषय में विचिकित्सा-घृणाभाव से रहित होता है । यह निर्विचिकित्सा का स्वरूप अन्य प्रकार से भी कहा गया है ॥४५॥ मैं उत्कृष्ट धर्म को धारण कर रहा हूँ। फिर भी ये समर्थ विघ्न आकर मुझे पीडित करते हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि धर्म, देव (जिनेश्वर) और जिनमत ये सब व्यर्थ हैं; ऐसा जो विचार करता है वह अन्य विचिकित्सक है-यह विचिकित्सा का स्वरूप अन्य प्रकारसे भी कहा गया है ॥४६॥ सोही कहा गया है भूख, प्यास, शीत व उष्ण आदि विविध अवस्थाओं में तथा विष्ठा आदि घृणित वस्तुओं में भी ग्लानि नहीं करनी चाहिये ॥४६*१॥ स्नान, भस्मलेपन, मौन, वल्कल, मस्तक पर जटाजूट, जपमाला व चर्म तथा मन्त्रादि एवं योगमुद्रादिक मिथ्यात्वियों के जो कुछ आचार का आडंबर है, वह अध्यात्मज्ञान और चारित्रशुद्धि से रहित है । इसलिये जिनशासन भक्त उनके उपर्युक्त आडंबरको कभी प्रशंसा नहीं करें और वचन से कभी स्तुति नहीं करें ॥४७॥ ४६) 1D भवेत्. 2 निन्दकः । ४६*१) 1 D°नानाभिधेषु', पूजासु. 2 गूथादिषु. 3 निन्दा, घृणा. 4 इति निचिचिकित्सितत्त्वं तृतीयाङगम् । ४७) 1 चमः (चर्मभिः). 2 जैनमतवेत्ता. अमूढदृष्टि:. 3 कदाचित् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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