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________________ -१०. ४५] ___- सम्यक्त्वाङ्गनिरूपणम् - २०५ 790) वीरव्रतप्रकाशाय निर्ममत्वप्रसिद्धये । तथात्मगुप्तिसंसिद्धय क्रियते केशलुञ्चनम् ॥ ४३*१५ 791) बालवृद्धगदग्लानान् मुनीनौदायनः स्वयम् । भजनिर्विचिकित्स्यात्मा स्तुति प्राप पुरन्दरात् ॥ ४३*१६ 792) दारिद्रयाददती विधिं विदधती भोज्यं व्रतिन्यै स्वयं उद्गारं किल कुर्वती श्रमवतीं पश्यन्त्यमुं सुव्रताम् । श्रीदत्तापि चिकित्सितं स्वमनसि व्यातन्वती दुर्वचं दुःखं दुःसहमाप भाविजननादवेधाप्यतस्तन्वते ॥ ४४ 793) इष्टानिष्टवियोगयोगजनिता विघ्ना हि निघ्नन्ति मां धर्म संदधतं सदैव परमं पूर्वाजितादुष्कृतात् । धर्मो ऽसौ फलितोप्तबीजविधिवद्ध्यायेदिदं यो हदि स्यादन्यो ऽविचिकित्सकः स समये धर्मे ऽपि देवे ऽपि च ।। ४५ है । यह केशलोंच वीरव्रत को प्रकाशित करने, निर्ममत्व बुद्धि को प्रगट करने और आत्मगुप्ति की सिद्धि के लिये किया जाता है। (भावार्थ – अभिप्राय यह है कि नाईसे बालों के बनवाने में पैसे की आवश्यकता रहती है और यदि उसे किसी से माँगा जाता है तो उस में दीनता का भाव प्रगट होता है। यदि उन बालों को रखा जाय तो उनको सम्हाल करने में ममत्व बुद्धि का होना अनिवार्य है । इसीलिये मुनिगण उस दैन्यभाव और ममत्व बुद्धि को नष्ट करने के लिये अपने बालों का लोंच किया करते हैं। इससे उनकी वीरता व सहनशक्ति तो प्रगट होती ही है, साथ ही हिंसादि पापों से आत्मसंरक्षण भी होता है । यही कारण है जो आगम में उस केशलोंच का विधान किया गया है) ॥४३*१४-१५॥ बाल, वृद्ध व रोगपीडित मुनियों की घृणा से रहित हो कर स्वयं सेवा करनेवाला औदायन राजा इन्द्र से प्रशंसित हुआ है ॥४३*१६॥ दारिद्रय से युक्त-निर्धन-श्रीदत्ता श्राविका ने विधिपूर्वक स्वयं आहार को बनाकर व्रतयुक्त सुव्रता नामकी आर्यिका को दिया था। परंतु आर्यिका ने उसी समय वान्ति (कय) कर दी। इससे उसे परिश्रमयुक्त देखकर श्रीदत्ता को मन में घृणा उत्पन्न हुई। तब उसने दुष्ट वचन का भी व्यवहार किया। इसीलिये वह आगे के भव में दुःसह दुख को प्राप्त हुई। यही कारण है जो सत्पुरुष दोनों ही प्रकार के निर्विचिकित्सित गुणका पालन किया करते हैं ॥४४॥ उत्कृष्ट धर्म को धारण करते हुए मुझे पूर्वोपार्जित कर्म के उदय से इष्ट के वियोग और ४३*१६) 1 औदायनराजा, D नृपः 2 सेवयन्. 3 औदायन राजा, कि विशिष्टः, अदायः निर्विचिकित्स्य आत्मा यस्य सः । ४४) 1 सव्रतार्याय, D आर्याय. 2 छर्दिम्. 3 ताममुम् आर्याम्. 4 सा श्रीदत्ता पश्यन्ती। ४५) 1 P°विघ्नन्ति. 2 पूर्वकथिताद् द्वितीयः. 3 निन्दकः घृणास्पदः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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