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________________ २०४ - धर्मरत्नाकरः [१०. ४३*१० 785) त्यजद्भिरामूलत एव संगानग्नत्वमङ्गीक्रियते स्म सर्वैः । ___पाषण्डिभिर्धर्तुमशक्नुवानरयोभयभ्रष्टतया स्थितं तैः ॥४३*१० 786) नैष्किचन्यमहिंसा च कुतः संयमिनां भवेत । ते संगाय यदीहन्ते वल्कलाजिनवाससाम् ॥ ४३*११ 787) न स्वर्गाय स्थिते क्तिर्न श्वभ्रायास्थितेर्मता । किंतु संयमिलोकस्य सा प्रतिज्ञार्थमिष्यते ॥ ४३*१२ 788) पाणिपात्रं मिलत्येतच्छक्तिश्च स्थितिभोजने । यावत्तावदहं भुञ्ज रहाम्याहारमन्यथा ॥ ४३*१३ 789) अदैन्यासंगवैराग्यपरीषहकृते कृतः। उत एव यतीशानां केशोत्पाटनसद्विधिः ॥ ४३*१४ नग्नता से द्वेष करना योग्य है। परंतु यदि किसी प्रकार का भी विकार नहीं होता है तो फिर उस स्वाभाविक नग्नता के प्रति द्वेष की कलषता कसे योग्य कही जा सकती है ? ॥४३१९ ॥ परिग्रह का पूर्णतया परित्याग करनेवाले सब ही मुमुक्षु जनों ने नग्नता को स्वीकार किया है । किन्तु जो पाखंडी जन उस नग्नता को धारण करने के लिये असमर्थ थे वे उभय से भ्रष्ट होकर स्थित हुए हैं, अर्थात् वे न तो गृहस्थ धर्म का ही परिपालन कर सके हैं और न मुनिधर्म का भी। तात्पर्य यह कि, मुनिधर्म को धारण करनेवाले साधु जनों को नग्नता को धारण करना अनिवार्य होता है ॥ ४३*१०॥ यदि वे साधु बकला, चर्म और वस्त्रों को चाहते हैं तो ऐसे संयमी जनों के निष्परिग्रहता और अहिंसा कहाँ से हो सकती है ? नहीं हो सकती है । अर्थात् अंतरंग परिग्रह का त्याग करने से हो अहिंसा और निष्परिग्रहता हो सकती है, अन्यथा नहीं ॥ ४३*११॥ खडे होकर आहार ग्रहण करने से स्वर्ग प्राप्ति होती हो और बैठकर आहार ग्रहण करने से नरक प्राप्ति होती हो ऐसा तो नहीं है। फिर भी संयमीजन प्रतिज्ञापालन के लिये खडे होकर आहार का स्वीकार करते हैं। उनकी वह प्रतिज्ञा इस प्रकार है-जबतक यह पाणिपात्र मिलता है अर्थात् जब तक दोनों हाथ जुडते हैं और जब तक खडे होकर भोजन करने का सामर्थ्य है तब तक मैं आहार को ग्रहण करूँगा, अन्यथा उसका त्याग कर दूंगा ॥४३*१२-१३॥ __ इसी कारण दोनता व ममत्व बुद्धि को दूर करके वैराग्य को वृद्धिंगत करने व परीषहों को जीतने के लिये मुनिजनों को केश लोंच स्वरूप समीचीन विधि का विधान किया गया ४३*१०) 1 असमर्थैः । ४३*११) 1 वल्कलचर्मवस्त्राणाम् । ४३*१२) 1 उपविष्टे. 2 नरकाय.. 3 उत्थिते. 4 स्थिते भुक्तिः, D स्थितिभोजनम् । ४३*१३) । त्यजामि, D मुञ्चामि । ४३*१४) 1 केशोत्पाटनविधिः स्थापितः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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