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________________ - सम्यक्त्वाङ्ग निरूपणम् - 779 ) दर्शना देहदोषस्य यस्तत्त्वार्य जुगुप्सते । स लोहे' कालिकादोषान्नूनं मुञ्चति काञ्चनम् ॥ ४३*४ 780) तदैतिहये च देहे च याथात्म्यं पश्यतां सताम् । उद्वेगाय कथं नाम चित्तवृत्तिः प्रजायताम् ॥ ४३*५ 781) ब्रह्मचर्योपपन्नानामध्यात्माचारचेतसाम् । यतीनां स्नानमप्राप्तं दोषे त्वस्यं विधिर्मतः || ४३*६ 782 ) संगे कापालिकात्रेयीचाण्डालशबरादिभिः । आप्लुत्यं दण्डवत्सम्यग्जपेन्मन्त्रमुपोषितः ।। ४३*७ 783 ) एकान्तरं त्रिरात्रं वा कृत्वा स्नात्वा चतुर्थ के । दिने शुध्यन्त्यसंदेहमृतौ' व्रतगताः स्त्रियः || ४३*८ 784) विकारे' विदुषां द्वेषो नाविकारे ऽनुवर्तते । तन्नग्नत्वे निसर्गोत्थे को नाम द्वेषकल्मषः ॥ ४३*९ -१०. ४३*९] २०३ जो देह के दोष को देखकर तत्त्व से शरीरधारी के संयमादि से घृणा करता है वह पुरुष लोहे में कालेपन को देखकर निश्चय से सुवर्ण का त्याग करता है, ऐसा समझना चाहिये ॥४३ *४।। जो सत्पुरुष तपस्वी के उपदेश और उसके शरीर में यथार्थ स्वरूप को देखनेवाले हैं। उनकी मनोवृत्ति भला उद्विग्न क्यों होगी ? अर्थात् उनके यथार्थ स्वरूप को देखनेवालों के चित्त में उनके प्रति गुणानुराग ही होगा, न कि घृणाभाव ।।४३*५।। जो महर्षिजन ब्रह्मचर्य में तत्पर हैं तथा जिनका मन अपने आत्मस्वरूप में मग्न है उनके लिए स्नान का विधान नहीं है, परंतु स्नानयोग्य दोष के होने पर उनके लिए भी स्नानका विधान किया गया है ॥ ४३६ ।। अपने पास मनुष्यों के कपाल को रखनेवाले, ऋतुमती स्त्री और चाण्डाल व भील आदि का स्पर्श होनेपर दण्ड के समान खडे होकर स्नान करना चाहिये और उपवासपूर्वक एक सौ आठ वार पंचनमस्कारमंत्र का जप करना चाहिये ॥ ४३*७ ।। ऋतुकाल में एकान्तरोपवास अथवा तीन जो व्रत धारण करनेवाली स्त्रियाँ हैं, उपवास कर चौथे दिन में निःसंशय शुद्ध होती हैं नग्न रहनेपर यदि किसी प्रकार का इंद्रियविकार आदि होता है तो विद्वानों का उस ॥४३८ ।। ४३*४) 1 परमार्थाय 2D धातौ । ४३*५ ) 1 देहस्वभावं पूर्वोक्तं ज्ञात्वा यः तस्य अपरं न । ४३*६) 1 अस्य स्नानस्य । ४३७ ) 1 ऋतुवं [म] ती, D पुष्पितकामिनी. 2 स्नात्वा 3 P° मन्त्रानुपोषितः ४३* ८ ) 1 ऋतौ विषये स्त्री । ४३* ९ ) 1D सति ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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