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________________ -१०. ४२११] - सम्यक्त्वाङ्गनिरूपणम् - 772) दोपलेशमपश्यन्तः सर्वज्ञगदितागमे । इति दोषचतुष्केण विचिकित्सन्त्यसदृशः ॥ ४१ 773) सच्छरुतात्सुश्रतं शीलमसहाः श्रयितुं नराः। निबोधितुं तदर्थं च स्वदोषादृषयन्त्यतः॥ ४२ 774) तदुक्तम् जडबुद्धी ण हु धिप्पइ मलिणो गुणणिग्गहो ण कुसलाणं । णीलं ण णहं सा णायणस्स तेयस्स विणियट्टी ॥ ४२*१ 775) तत्रेत्थं समाधीयते स्थान-प्रामाणिक व ग्राहय-नहीं है । वह इस प्रकार से इसका कारण यह है कि मुनिजन आचमन और स्नान से रहित होकर नग्न रहते हैं व ऊर्ध्वस्थ हो कर-खडे रह कर-भोजन करते हैं। इस प्रकार अज्ञानी जन जिनोपदिष्ट तपश्चरण के विषय में इन चार दोषों को प्रगट करते हैं ॥४०॥ __उक्त मिथ्यादृष्टि जन सर्वज्ञ प्रतिपादित आगम में-जिनागम के विषय में -दोष का लेश भी न देखकर उपर्युक्त चार दोषों को निर्दिष्ट करते हुए घृणा प्रदर्शित करते हैं ॥४१॥ जो मनुष्य समीचीन श्रुत से उत्तम शास्त्र, ज्ञान और शील (सदाचार) का आश्रय लेने में तथा उसके अर्थ को समझाने के लिये असमर्थ होते हैं, वे इसीलिये अपने दोष के कारण उसे दूषित करते हैं ॥ ४२ ॥ सो ही कहा है - यदि जडबुद्धि मलिन पुरुष विद्वानों के गुणों को नहीं ग्रहण करता है तो इससे उनके गुणों का निग्रह-नाश-नहीं समझना चाहिये । उदाहरणार्थ-रूपसे रहित आकाश नीला नहीं है, फिर भी जो वह नीला दिखता है, यह नेत्रों के तेजकी उपरति-दोष-है न कि आकाश का। तात्पर्य यह कि जिन को गुणियों में दोष दिखते हैं और जो उन्हें ग्रहण नहीं करते हैं इसे उन जडबुद्धियों का ही दोष समझना चाहिये ॥४२*१।। वहाँ इस प्रकार समाधान किया जाता है । ४१) 1 निन्दां कुर्वन्ति, Dनिन्दन्ति. 2 मिथ्यादष्टयः । ४२) 1 D शीलवतरक्षणे असमर्थाः. 2 आग मार्थं ज्ञातुम् असमर्थाः । ४२*१) 1 आकाशम्, D पद्मिनी. 2 सा ऋद्धिः निजद्धिः. 3 नेत्रजनिततेजसः, नायनस्य तेजसः, D हंसस्य, D सिवालं. २६
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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