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- सम्यक्त्वाङगनिरूपणम् - 762) मुविद्या वणिक्प्राप्य शिक्ये चारुहय शङ्कितः ।
चौरस्तु तां वशीकृत्य निःशङ्कः प्राप तत्फलम् ॥ ३१ 763) इहे महाविभवादिकमक्षयं परभवे धनदत्वमुपेन्द्रताम् ।
क्षितिपतित्वसुरेश्वरतादिकमभिलषेन्न कुदर्शनकौतुकम् ॥ ३२ 764) हस्ते चिन्तामणिर्यस्य प्राङगणे कल्पपादपः।।
कामधेनुर्धने यस्य तस्य कः प्रार्थनाक्रमः ॥ ३३ 765) उदविता सं माणिक्यं चक्रिराज्यं किलाटकैः ।
विक्रीणीते स सम्यक्त्वाद्य इच्छेद्भवजं सुखम् ॥ ३४ 766) निःशेषकामितसुखप्रतिदानदक्ष
स्थाने निराकुलतया ननु चित्तवृत्तिः । यस्यास्ति तं नरमणि समुपाश्रयन्ते सर्वाः श्रियो जलनिधिं तु यथा स्रवन्त्यः ॥ ३५
( धरसेन नामक ) वैश्य किसी मुनिराज से (आकाश गामिनी) विद्याको लेकर शंकित होने के कारण सीके पर चढकर भी उस विद्या को प्राप्त नहीं कर सका । परंतु निःशंक अंजन. चोरने उस विद्या को अपने अधीन करके-सिद्ध करके उस के फल को प्राप्त किया ॥ ३१ ॥
___ सम्यग्दृष्टि जीव को इहलोक में अक्षय महावैभवादिक तथा परभव में कुबेर के पद, उपेन्द्र (नारायण) के पद, चक्रवतित्व और इन्द्रपद आदि की इच्छा नहीं करना चाहिये तथा कुदर्शन से कुछ कौतुकयुक्त बातों की चाह नहीं करना चाहिये ॥ ३२ ॥
जिस के हाथ में चिन्तामणि, आँगन में कल्पवृक्ष और धन में कामधेनु है उसे दूसरे के पास याचना करने की क्या आवश्यकता है ? कुछ भी नहीं ॥ ३३ ॥
___ जो सम्यग्दर्शन से सांसारिक सुख की इच्छा करता है वह मानो छाछ के द्वारा माणिक्य रत्न को तथा कौडियों के द्वारा चक्रवर्ती के राज्य को बेचता है, ऐसा समझना चाहिये ॥३४ ॥
जिसकी मनोवृत्ति संपूर्ण इच्छित सुख को देने में समर्थ स्थान में व्याकुलता से रहित है- जो शुद्ध सम्यग्दृष्टि सांसारिक सुख के लिये व्याकुल नहीं होता है- उस महात्मा का सम्पत्तियाँ इस प्रकार से आश्रय लेती हैं जिस प्रकार की नदियाँ समुद्र का आश्रय लेती हैं ॥३५॥
३१) 1 सम्यङ मन्त्रम्. 2 श्रेष्ठिनः सकाशान् मुनेर्वा सकाशात् कश्चिद् वणिक्प्राप्य. 3 शिक्ये आरुहय सशङिकत : निष्फलो जातः. 4 PD विद्याम्. 5 तस्या विद्यायाः, D मोक्षफलम् । ३२) 1 अ 2 विष्णुताम्. 3D सदृष्टिः । ३४) 1 तक्रेण इति लोके. 2 D नरः. 3 PD सद्यः प्रसूता महिषी दुग्धपेवसी। ३५) 1श्रियः आश्रयन्ति स्रवन्त्यः नद्यः।