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________________ १९८ .. - धर्मरत्नाकरः - [१०. २६सकलमनेकान्तात्मकमिदमुक्तं वस्तुजातमखिलज्ञः ।। तैनान्यथेति मनुते यो ऽसौ निःशङ्कितो भवति ॥ २६ 758) एककस्य मम नास्ति रक्षको व्याधितस्य मरणे व्रतक्षतौ । विष्टपे य इति नो विचिन्तयेत् तं वदन्त्यभयशङिकतं जिनाः ॥ २७ 759) अर्हनेव भवेदेवस्तत्त्वं तेनोक्तमेव च ।। - व्रतं दयाधमेव स्यान्मुक्त्यै यो ऽन्यो हयशङ्कितः ॥ २८ 760) चार्वाकादिमतप्रकाशिनि महास्याद्वादनिर्णाशिनि वादिच्छद्मनि' नाकसद्मनि सभासंमोहदानात्मनि । रूपाप्यायिनि पूर्वजन्मजमहावैरानुबन्धायिनि । निःशङ्को ऽगददुत्तरं नृपपति वज्रायुधाख्यो यथा ॥ २९ 761) विज्ञाय तत्त्वं प्रविलोक्य शत्रून्' दृष्ट्वा स्वयं पात्रमुपस्थितं च । दोलायमानो हृदि जायते यो रिक्तो ह्यसावत्र परत्र च स्यात् ॥ ३० सर्वज्ञ वीतराग जिनेन्द्रने इस समस्त वस्तुसमूह को जो अनेकान्त स्वरूप कहा है वह अन्यथा-मिथ्या- नहीं है ऐसा जो मानता है वह निःशंकित अंगका धारक है ॥ २६ ॥ ___ मैं अकेला व रोगसे पीडित हूँ । मरण समय में तथा व्रत के नाश के समय में इस जगत में मेरा कोई रक्षक नहीं है, ऐसा जो मन में विचार नहीं करेगा-करता है उसे जिन भगदान् भयशंका से रहित करते हैं ॥ २७ ॥ .. इस जगत् में अरहन्त ही देव और उनके द्वारा निर्दिष्ट स्वरूप ही तत्त्व है, और दया जिस में मुख्य है वही व्रत मोक्षप्रद है, ऐसा जो अन्य मानता है वह शंका से रहित है- निः शंकित अंगका धारक है ॥ २८ ॥ जो स्वर्गवासी कुटिलवादी देव, चार्वाक आदि मतों को प्रकाशित करनेवाला महान् स्याद्वादका नाशक, सभा को मुग्ध करनेवाला, सौन्दर्य से सन्तोषजनक और पूर्वजन्म में प्रादुभूत वैर से संबद्ध था, उसके आनेपर वज्रायुध नाम के राजाने निःशंक हो कर उसे उत्तर दिया ॥ २९ ॥ तत्त्वको जानकर भी जो शत्रुओं को एवं स्वयं उपस्थित हुए पात्र को देखकर मन में शंकित होता है, वह इस लोक में और परलोक में भी रिक्त ही रहता है। ( उसे न तो इस लोक में तत्त्वज्ञताका कुछ फल प्राप्त होता है और न परलोक में भी) ॥ ३० ॥ २६) 1 PD सर्वज्ञैः. 2 वस्तुजातम् । २७) 1 उपसर्गो, D सत्या. 2 त्रिभुवने. 3 निःशंडिकतम् । २९) 1 वादमिषे. 2 देवतागृहे चैत्यालये इत्यर्थः. 3 रूपेण सुखदायिनि, D व्यापके. 4 कश्चिद् राजा. 5 इन्द्रः । ३०) 1D कर्मशत्रून्. 2 D पात्रं प्रति दानं न ददाति स एवास [रिक्त:. 3 D भवेत्। ..
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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