________________
-१०. २५ ]
- सम्यक्त्वाङ्गनिरूपणम् - 753) श्रद्धातृपरिणामानां श्रद्धयानां विभेदतः ।
असंख्यातमनन्तं च सम्यक्त्वं यत्तयो जगुः ॥ २२ 754) संख्यातं वाप्यसंख्यातमनन्तं वस्तुदर्शनम् ।
द्रव्यजातं यथाकाशे विशति त्रिविधे (?) ऽखिलम् ॥ २३ 755) श्रेणिकक्षितिपतिर्यथा वहन् क्षायिकं तदनु रेवती परम् ।
आदिराजतनुजाः सुदर्शनाच्छिश्रियुः शिवपदं क्षणादपि ॥ २४ 756) ये मिथ्यात्वकुलोद्भवा बहुविधा दोषाः पुरा वणिता -
स्तत्कन्दक्षपणक्षमान् पुरुगुणानिःशङ्कितत्त्वादिकान् । • सम्यग्दर्शनचक्रवर्तिपदवीसंवृद्धिसेवानुगान्
सेवध्वं सततं यदीच्छथै सुखं संसारदरं नराः ॥ २५ 757) परोक्तस्वोक्तश्लोकैनिःशङ्कितत्त्वादयः कथ्यन्ते । यथा
श्रद्धा करनेवाले के परिणाम और उस श्रद्धा के विषयभूत जीवाजीवादि तत्त्व इनके भेदों से उस सम्यक्त्व के असंख्यात और अनन्त भी भेद होते हैं ऐसा मुनिजनोंने कहा है ॥ २२ ॥
उस सम्यग्दर्शन के संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद रह सकते है, क्योंकि उसका विषयभूत तीन प्रकारका द्रव्यसमूह अनन्त आकाश में निश्चय से रहता है ॥ २३ ॥
श्रेणिक राजा क्षायिक सम्यक्त्व को धारण कर मोक्षपदको प्राप्त हुआ है । तत्पश्चात् रेवती रानी भी उस उत्कृष्ट सम्यक्त्व को धारण कर मुक्तिपदको प्राप्त हुई है। भगवान् ऋषमदेव के पुत्र भी उस सम्यग्दर्शन के प्रभाव से क्षण में मुक्ति को प्राप्त हुए हैं ॥ २४ ॥
हे भव्य जनो ! यदि तुम संसार से दूरवर्ती सुख को-निर्बाध मुक्तिसुख को- प्राप्त करना चाहते हो तो सम्यग्दर्शन के अंगभूत निःशंकितत्त्व आदि महान् गुणों को निरन्तर आरा. धना करो। कारण कि ये गुण मिथ्यात्वके संसर्ग से उत्पन्न होनेवाले जिन बहुत प्रकार के दोषों का ऊपर वर्णन किया गया है उनके निर्मूल करने में समर्थ होते हुए सम्यग्दर्शनरूप चक्रवर्ती पदवी के संवर्धन के लिये सेवक समान हैं- उस सम्यग्दर्शन को विशुद्ध करके उसे संसार परंपराके विनष्ट करने में समर्थ करनेवाले हैं ॥ २५ ॥
अन्य आचार्य कथित व स्वरचित श्लोकों से उन निःशंकितत्त्वादि गुणोंका वर्णन किया जाता है
२२) 1D उत्तममध्यमजघन्यानां. 2 D कथयन्ति । २३) 1 द्रव्याणां समूहम्, D षड्द्रव्यसमूहं । २४) 1 शोभनसम्यक्त्वात्, D पुत्राः अरहंतदर्शनात्. 2 शिवपदं समाश्रिताः। २५) 1 तेषां दोषाणाम्. 2 बादिगुणान्.3 यूयं यदि इच्छथ. 4 मोक्षसुखम्.5 हे नराः।