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-- धर्मरत्नाकरः -
[१०. १९५१आसन्नभव्यताकर्महानिसंज्ञित्वशुद्धिपरिणामाः ।
सम्यक्त्वहेतुरन्तर्बाहयो ऽप्युपदेशकादिश्च ॥ १९७१ 745) अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः ।
बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥ १९७२ 746) सरागं शमसंवेगानुकम्पास्तिक्यलक्षितम् ।
आत्मशुद्धिकरं ज्ञेयं वीतरागं तु दर्शनम् ॥ २० 747) यद्वच्छक्तिरतीन्द्रिया कलयितुं पुंसः स्फुट पार्यते
संभोगे रमणीजनेन तनयोत्पत्त्या विपद्धैर्यतः। प्रारब्धोद्वहनादिभिश्च नियतं तद्वच्छमायैस्तु तैः
सम्यग्दर्शनमात्मरूपमपि सन्निर्णायते प्राणिनाम् ॥ २१ 748) उक्ताः प्रशमाद्याः -
आसन्नभव्यता-कुछ ही भवों में निर्वाण प्राप्ति की योग्यता, कर्महानि-सम्यक्त्व के प्रतिपक्षभूत मिथ्यात्व आदि कर्म प्रकृतियों का यथासम्भव उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम, संज्ञित्वशिक्षा, क्रिया व आलापादि ग्रहण की योग्यता, और परिणामों की निर्मलता, ये सम्यक्त्व की उत्पत्ति में अन्तरंग कारण तथा गुरु का उपदेश आदि-जातिस्मरण व जिनप्रतिमादर्शन आदिबाह्य कारण हैं ॥ १९*१॥
इष्ट और अनिष्ट जब अबुद्धिपूर्वक प्रयत्न के विना ही होते हैं, तब वे अपने देवसेदैवकी प्रधानता और पुरुषार्थ की गौणता से – होते हैं, ऐसा समझना चाहिये । और जब वे इष्टानिष्ट बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करने पर होते हैं तब वह अपने पौरुषसे-पुरुषार्थ की प्रधानता और देव की गौणता से -होते हैं, ऐसा समझना चाहिये ॥ १९*२॥
वह सम्यक्त्व सराग और वीतरागके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें जो सम्यक्त्व प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन चिन्हों से पहचाना जाता है वह सराग सम्यग्दर्शन है। तथा जो आत्मशुद्धि मात्रको करनेवाला सम्यक्त्व वीतरागके -उपशान्तमोहादि गुणस्थानवति जीवोंके -होता है उसे वीतराग सम्यग्दर्शन जानना चाहिये ॥ २० ॥
स्त्रीके साथ संभोग करने से होनेवाले पुत्र की उत्पत्ति से, विपत्तिसमय में धैर्य धारण करने से तथा प्रारब्ध कार्य के निर्वाह आदिक हेतुओं से जिस प्रकार पुरुषकी अतीन्द्रिय (अदृश्य) शक्ति स्पष्ट जानी जाती है, उसी प्रकार आत्माका स्वरूपभूत वह प्राणियोंका सम्यग्दर्शन भी उक्त प्रशम, संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य आदि हेतुओं से निश्चय से जाना जाता है ॥२१॥
प्रशम आदि गुण इस तरह कहे गये हैं। २०) 1 सम्यक्त्वम् । २१) विवाहादि ।