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________________ - सम्यक्त्वाङ्गनिरूपणम् - -१०.१९] 741 1 ) उपशमकरो दृङ्मोहस्याखिला गतिष्विति क्षपयति पुनः कर्मावन्यां स यः समभूद्भवी । नयति हि पुननिष्ठामेता बिना नियमं सदा क्वचिदपि न वा मिश्रस्योक्तो जिनैनियमो भवेत् ॥ १७ 742) तत्त्वास्तिकायषड्द्रव्यपदार्थ विनिवेदकः । प्रमाणनयनिक्षेपैः सूरिदर्शनकारणम् ॥ १८ 743 ) बाह्यानि कारणान्येवंप्रायोपयुक्तानि दर्शने आन्तराणि शमादीनि कथितानीह कर्मणाम् ॥ १९ 744) उक्तं च १९३ नहीं होता। प्रथम और द्वितीय औपशमिक और क्षायिक ये दो सम्यक्त्व सब ही काल में हो सकते हैं- उनके लिये कोई कालका नियम नहीं है । किन्तु क्षायिक सम्यक्त्व जिस काल व क्षेत्र में केवली जिन विद्यमान हों उसी काल में व क्षेत्र में उत्पत्ति के उन्मुख होता है ॥ १६२ ।। दर्शन मोहका उपशम करनेवाला जीव सब (चारों ) गतियों में सम्भव है । जो जीव कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ है वही दर्शन मोहका क्षय करता है - अन्यत्र उस दर्शन मोह के क्षय की सम्भावना नहीं है। अभिप्राय यह है कि कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ जीव ही केवली के सान्निध्य में दर्शनमोह के क्षय को प्रारम्भ करता है । परन्तु निष्ठापन ( पूर्णता ) उसका अन्यत्र भी सम्भव है, उसके लिये कोई गति आदिका नियम नहीं है । जिनेश्वरोंने क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनका किसी क्षेत्रादि की अपेक्षा से नियम नहीं कहा है, वह सर्वत्र उत्पन्न हो सकता है ॥ १७ ॥ जीव, अजीव आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व, जीव, धर्म, अधर्म,. आकाश और पुद्गल ये पांच अस्तिकाय, तथा इनके साथ कालद्रव्य को लेकर षद्रव्य एवं पूर्वोक्तसप्ततत्त्वों में पुण्य व पाप मिलाकर नौ पदार्थ, इनका उपदेश जो प्रमाण, नय और निक्षेपके आश्रय से करता है वह गुरु सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में कारण होता है । इस प्रकार ये सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में बाह्य कारण कहे गये हैं । तथा उसके अन्तरंग कारण कर्मोंके - दर्शन मोह की तीन और अनन्तानुबन्धी चतुष्टय इन सात प्रकृतियोंके - उपशम आदि कहे गये हैं॥ १८-१९ ॥ कहा भी है १८) 1 आचार्य: । १९ ) 1 D° णान्येव प्रायाणि । २५
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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