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- धर्मं रत्नाकर:
736 ) साधनं द्वितयं तेषु साध्यं क्षायिकमुच्यते । लघ्वीं स्थितिं समस्तानामन्तमौहूर्तिकीं विदुः ॥१४ 737) ज्येष्ठामाद्यस्य तामेवं द्वे षट्षष्टी त्रयामपि । वेदकस्य ं त्रयस्त्रिशत्सागराणां जगुः पराम् ॥ १५ 738) पूर्व कोटिद्वयेनामा क्षायिकस्येषदूनिकाम् ।
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भवतो ह्ययस्यास्य प्रत्यक्षे केवलेशिनाम् ।। १६ । युग्मम् 739) तदुक्तम् -
वचनैर्हेतुभिर्युक्तैः सर्वेन्द्रियभयावहैः । जुगुप्साभिश्च बीभत्सैर्नैवं क्षायिकदृक्चलम् ।। १६*१ 740) पढमं पढमं णियदं पढमं बिदियं च सव्वकालेसु । खाइयसम्मत्तं पुण जत्थ जिणा केवली काले ॥ १६२
[ १०. १४
उक्त तीन सम्यग्दर्शनोंमें औपशमिक और क्षायोपशमिक (वेदक) सम्यग्दर्शन ये दो साधन तथा क्षायिक सम्यग्दर्शन साध्य कहा गया है । इन तीनों सम्यक्त्वोंका लघु ( जघन्य ) काल अन्तर्मुहूर्तमात्र कहा गया है ॥ १४ ॥
उत्कृष्ट स्थिति प्रथम (औपशमिक ) सम्यक्त्वकी पूर्वोक्त अन्तर्मुहूर्त मात्र ही समझना चाहिये । वेदक सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति दो छयासठ - ( १३२) सागर प्रमाण है । क्षायिक सम्यग्दर्शनकी उत्कृष्ट स्थिति दो पूर्व कोटि अधिक तेतीस सागर में कुछ - दो अन्तर्मुहूर्त व (आठ वर्षं) कम है । यह स्थिति संसारकी अपेक्षा से कही गई है । वैसे वह अविनश्वर है जो केवलियों के प्रत्यक्ष है | १५ - १६ ॥
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कहा है।
क्षायिक सम्यग्दृष्टि सब इन्द्रियोंको भय उत्पन्न करनेवाले युक्तियुक्त वचनोंसे, घृणा या निन्दा तथा भयानक दृश्योंसे भी विचलित नहीं होती है। तात्पर्य यह कि क्षायिक सम्यक्त्वक उत्पन्न हो जानेपर कितनी ही प्रतिकूल सामग्री क्यों न उपस्थित हो, किन्तु वह कभी नष्ट नहीं होती है ।। १६*१ ।।
प्रथम - औपशमिक सम्यक्त्व प्रथम नियत है, अर्थात् अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के सव प्रथम वह औपशमिक सम्यक्त्व ही होता है - अन्य क्षायोपशमिक व क्षायिक सम्यक्त्वों में से कोई
(१४) 1 तेषु त्रिषु सम्यक्त्वेषु मध्ये द्वितीयं वेदकोपशमं साधनं क्षायिकं साध्यम्. 2 त्रयाणां सम्यक्त्वानाम. 3 जातीहि । १५ ) 1 उत्कृष्टां स्थितिम् 2 उपशमसम्यक्त्वस्य 3 तां पूर्वोक्तां अर्धपुद्गलावर्त - स्थितिम्. 4 त्रयाणां सम्यक्त्वानाम् 5 क्षायिकस्य 6 कथयन्ति 7 उत्कृष्टाम् । १६* १ ) 1 क्षायिकदर्शनम् ।