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________________ -१०. १२], - सम्यक्त्वाङगनिरूपणम् - 731) मिथ्यात्वं सम्यमिथ्यात्वं सम्यक्त्वान्वर्थनामभिः । भिन्न मिथ्यात्वमुक्तस्तैः प्रशमय्य क्रुधादिभिः ॥९ 732) अन्तमौहूर्तिकं लाति दर्शनं प्रथमं ततः। पृष्ठतो ऽस्य ति मिथ्यात्वं दिनास्तस्यं तमो यथा ॥ १० 733) ततो ऽनु वेदकं लाति सम्यक्त्वं को ऽपि वेगतः । सायिकं को ऽपि शुद्धात्मा नात्र कालो नियम्यते ॥११ । कुलकम् 734) तदनु यदि क्षपयित्वा ता लाति क्षायिकं तदा ज्ञेयम् । उदयक्षयसदुपशमे षण्णां शुद्धोदये मिश्रम् ॥ १२ 735) तुर्यादारभ्य सर्वेषु गुणेषु क्षायिक विदुः। शमान्तेषु तदाद्यं स्याद्वेदकं चतुर्यु स्थितम् ॥ १३ क्रोधादिकों के साथ मिथ्यात्व, सम्यङमिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन सार्थक नामों से खण्डित-इन तीन भेदरूप किये गये-मिथ्यात्व (दर्शनमोह) को उपशमाकर अन्तर्मुहुर्त मात्र स्थितिवाले प्रथम (औपशमिक)सम्यग्दर्शन को ग्रहण करता है। इसके पश्चात् जैसे सूर्य के अस्त होने पर अन्धकार प्राप्त होता है वैसे ही उस सम्यग्दर्शन के नष्ट हो जाने पर पुन्हा मिथ्यात्वको प्राप्त होता है । तत्पश्चात् कोई भव्य जीव शीघ्र ही वेदक सम्यग्दर्शनको और कोई विशुद्ध जीव क्षायिक सम्यग्दशन को ग्रहण कर लेता है । इन सम्यग्दर्शनों के ग्रहण करने में कोई कालका नियम नहीं है॥३-११ यदि कोई शुद्धात्मा भव्य दर्शनमोहकी सम्यक्त्वादि तीन प्रकृतियों और चार अनन्तानुबन्धी कषायों का क्षय करता है तो उस समय उस के क्षायिक सम्यग्दर्शन जानना चाहिये । तथा चार अनन्तानुबन्धी, मिथ्यात्व और सम्यङमिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदय, क्षय व सदवस्थारूप उपशम- और शुद्ध-सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेपर मिश्र- क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन- जानना चाहिये ॥ १२॥ क्षायिक सम्यक्त्व चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक सब गुणस्थानों में सम्भव है । पहिला औपशमिक सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थान से लेकर शमान्त गुणस्थानों में-उपशान्तकषाय गुणस्थान तक आठ गुणस्थानोंमें-सम्भव है। तथा वेदक सम्यग्दर्शन चौथे से सातवें गुणस्थान पर्यन्त सम्भव है ॥ १३ ॥ ९) 1 सम्यक्त्व मिथ्यात्वप्रकृति. 2 क्रोधादिकषायैः । १०) 1 गृह्णाति. 2 प्रथममुपशमम्. 3 दर्शनस्य. 4 सूर्यास्तस्य । १२) 1 प्रकृतीः । १३) 1 चतुर्थगुणस्थानात्. 2 गुणस्थानेषु सर्वेषु. 3 कथयन्ति. 4 शमान्तेषु. अस्य को ऽर्थ:-चतुर्थगुणस्थानादेकादशोपशमगुणस्थानपर्यन्तम्. 5 आद्यम् उपशमसम्यक्त्वम. 6 वेदकं चतुर्थगुणस्थानात् सप्तमपर्यन्तम्. 7 चतुर्गुणस्थानेषु भवति ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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