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________________ - सम्यक्त्वाङ्गनिरूपणम् - यद्रागादिषु दोषेषु चित्तवृत्तिनिबर्हणम्' । तं प्राहुः प्रशमं प्राज्ञाः समस्तत्रतभूषणम् ॥ २१*१ 749) शारीरमानसागन्तुवेदनामभवाद्भवात् । स्वप्नेन्द्रजालसंकल्पाद्भीतिः संवेग उच्यते ।। २१*२ 750 ) सत्त्वे सर्वत्र चित्तस्य दयार्द्रत्वं दयालवः । धर्मस्य परमं मूलमनुकम्पां प्रचक्षते ॥ २१३ 751 ) आप्ते श्रुते ते तत्त्वे चित्तमस्तित्वसंस्तुतम् । आस्तिक्यमस्ति कैरुक्तं मुक्तियुक्तिधरे नरे ॥ २१*४ 752 ) बहुघोक्तम् - १०, २१*५ ] आज्ञा मार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्तारार्थाभ्यां भवमव परमावादिगाढं च ॥ २१*५ १९५ रागद्वेषादि दोषों की ओर से चित्तवृत्तिको हटाना इसे विद्वान् लोग प्रशम कहते हैं । वह संपूर्ण व्रतोंका अलंकार है - उन्हें विभूषित करनेवाला है ॥ २१*१ ॥ शारीरिक, मानसिक एवं आगन्तुक अकस्मात् प्राप्त होनेवाले - दुःखों के उत्पादक ऐसे स्वप्न व इन्द्रजाल के सदृश संसार की ओर से जो भय होता है उसे संवेग कहा जाता है ॥२१*२ ॥ सबही प्राणियों के विषय में जो अन्तःकरण में दया का भाव रहता है उसे दयालु जन धर्म का उत्तम मूल - आधारभूत अनुकम्पा कहते हैं । वह अनुकम्पा धर्मरूप वृक्ष की उत्कृष्ट जड के समान है ।। २१*३ ॥ रागद्वेषादि दोषों से रहित देव, उसके द्वारा कहा हुआ आगम, अहिंसादि व्रत तथा जीवादि तत्त्व, इनके अस्तित्वविषयक जो चित्त में प्रशस्त दृढता होती है उसे आस्तिकों ने आस्तिक्य गुण कहा है। वह आस्तिक्य गुण मुक्ति को युक्ति से धारण करनेवाले - युक्तिपूर्वक मुक्ति के विषय में आस्था रखनेवाले मनुष्य में रहता है ॥ २१*४ ॥ बहुधा कहा गया है - आज्ञासम्यक्त्व, मार्गसम्यक्त्व, उपदेशसम्यक्त्व, सूत्रसम्यक्त्व, बीजसम्यक्त्व, संक्षेपसम्यक्त्व, विस्तारसम्यक्त्व, अर्थसम्यक्त्व, अवगाढसम्यक्त्व और परमावगाढसम्यक्त्व, इस प्रकार सम्यग्दर्शन के ये दस भेद हैं || २१*५॥ २१*१) 1 निग्रहणम्. 2D कथयन्ति । २१*२ ) 1 P° मानसानां तु वेदना, D कथ्यते । २१* ४) 1 सर्वज्ञे । २१*५ ) 1 उत्पन्नम् 2 अवगाढं परमावगाढं सम्यक्त्व ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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