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________________ १८८ 1 धर्म रत्नाकरः - 721 ) मिथ्यात्वोत्कर्षतो नष्टे नेत्रे संघश्रियो ऽप्यसौ । प्राप्तकालो मरीचिश्च बभ्राम सुचिरं भवे ॥ ८६ 722) मिथ्याभावप्र भवविभवात् संविभाव्येति दोषान् नानादुःखप्रणयनसहान् विश्वविश्वासभाजाम् । आधिव्याधीनिव मृतिमिव त्यक्तुमीहध्वमेतान मुग्धा माध्वं जयमुनिमहो आश्रयध्वं समृद्धयै ॥ ८७ इति श्री - सूरि-श्री- जयसेनविरचिते धर्मरत्नाकरनामशास्त्रे सम्यक्त्वोत्पत्ति प्रकाश कवर्णनो नाम नवमो ऽवसरेः ॥ ९ ॥ ८७) 1P ° इति नवमोवसरः । [ ९.८६ दुःखों का स्वीकार करता है - अनेक प्रकार के कष्टों को सहता रहा है, सहेगा और सह रहा है ।। ८५ ।। मिथ्यात्व के उत्कर्ष से उसकी प्रबलता से - संघश्री के दोनों नेत्र नष्ट हो गये और वह मरकर दीर्घकाल तक संसार में घूमता रहा । तथा भरत के पुत्र मरीचीने भी उसी मिथ्यात्व के उत्कर्ष से मरकर दीर्घ कालतक संसार में भ्रमण किया ॥ ८६ ॥ मिथ्यात्व भाव से उत्पन्न हुए वैभव से लोक के विश्वास के भाजनभूत प्राणियों को अनेक दुःखों को उत्पन्न करने में समर्थ ऐसे दोष होते हैं, ऐसा विचार कर के मानसिक व्यथा व रोग तथा मरण के समान इन दोषोंका त्याग करने के लिये इच्छा करना चाहिये | हे मूढ जन, गुण समृद्धि के लिये जयमुनि का आश्रय ग्रहण करो ॥ ८७ ॥ इस प्रकार नौवाँ अवसर समाप्त हुआ ।। ९ ।।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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