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________________ १७ -९. ८५] - सम्यक्त्वोत्पत्तिप्रकाशनम् - 716) अन्तरङगपरीणामान् विश्ववेदी विबुध्यते । निदर्शयन्तु विद्वांसों विज्ञायेति यथायथम् ॥ ८४ । युग्मम् 717) भङ् ग्यन्तरेणोक्तं सप्तषा एक्किक्को तिणि जणा दो दो य ण इच्छएं तिवग्गो य । ____ एक्को तिण्णि ण इच्छइ सत्त वि पावंति मिच्छत्तं ॥ ८४*१ 718) असिदिसदं किरियाणं अकिरियाणं च होइ चुलसीदी । सत्तट्ठी अण्णाणी वेणइयाणं च बत्तीसं ॥ ८४*२ 719) अनन्तमुक्तं यथा जावदिया वयणवहा तावदिया होति चेव णयमग्गा । जावदिया णयवादा तावदिया होति (चेव) परसमया ॥८४*३ 720) श्वभ्रतिर्यङ्न देवेषु भूतभाविभवन्ति सः। वृणीते सर्वदुःखानि मिथ्यात्वं यस्य मानसे ॥ ८५ ___ अन्तरंग परिणामों को तो सर्वज्ञ ही जानता है। विद्वान् यथायोग्य जानकर दृष्टान्त के रूप में दिखलावें ॥ ८४ ॥ प्रकारान्तर से भी मिथ्यात्व के सात भेद होते हैं। तीन जन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र में से किसी एक को स्वीकार नहीं करते हैं। इसी प्रकार अन्य तीन जन उनमें से दो दो को- स्वीकार नहीं करते हैं। तथा एक जन उन तीनोंको ही स्वीकार नहीं करता है। इस प्रकार ये सातों जन मिथ्यात्व को प्राप्त होते हैं ॥ ८४*१॥ मिथ्यात्व के बहुत भेद भी कहे गये हैं- क्रियावादि मिथ्यात्वियों के एक सो अस्सी (१८०), अक्रियावादियों के चौरासी (८४) अज्ञानियों के सडसठ (६७) और वैनयिक मिथ्यात्वियों के बत्तीस (३२) भेद हैं ॥ ८४*२ ॥ उसके अनन्त भेद भी कहे गये हैं जितने वचन के मार्ग हैं उतने ही नय के मार्ग हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं ।। ८४*३॥ जिस जीव के मन में मिथ्यात्व अवस्थित है वह भूत, भविष्यत् और वर्तमान इन तीनों कालों में प्राप्त होनेवाली नारक, तियेच, मनुष्य और देव पर्यायों को प्राप्त करके सब ८४)1 सर्वज्ञः. 2 पण्डिताः । ८४*१) 1 P °इच्छइ । ८४*२) 1 D°किरियाण, 2 Only in P! ८५) 1 स्वीकुरुते।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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