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________________ [ १०. दशमो ऽवसरः ] [ सम्यक्त्वाङ्गनिरूपणम् ] 723) त्रिसमयविषयत्रि जगद् गृहमदीपम बोध हेतुर्या । कर्मेधानलचरणमंसूरियं पातु मां दृष्टिः ॥ १ 724) निसर्गाज्जायते भव्ये ऽधिगमादर्शनं क्वचित् । संज्ञिपर्याप्तपञ्चाक्षे काललब्ध्यादिभागिनि ॥ २ जो दृष्टि- सम्यग्दर्शन- तीनों कालों को विषय करनेवाले तीन लोकरूप गृह को प्रकाशित करने में उत्कृष्ट दीपक का काम करनेवाले सम्यग्ज्ञान का कारण है तथा जो कर्म रूप इन्धन को अग्नि के समान भस्म करनेवाले सम्यक् चारित्र का उत्पादक है वह सम्यग्दर्शन मेरा रक्षण करे ।। १ ॥ वह सम्यग्दर्शन काललब्धि आदि को प्राप्त कर लेनेवाले किसी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त भव्य जीव के निसर्ग से परोपदेश के बिना अथवा अधिगम से - परोपदेशपूर्वक - उत्पन्न होता है । तात्पर्य - गुरु के उपदेश के विना जो सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है उसे निसर्गज सम्यग्दर्शन तथा हितैषी गुरु आदि के सदुपदेश से जो सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है उसे अधिगमंज सम्यग्दर्शन कहते हैं । जिस जीवको हिताहित का विचार होता है तथा जो शिक्षा, आलाप और उपदेश आदि को ग्रहण कर सकता है उसे संज्ञी कहते हैं । आहार, शरीर, इन्द्रिय श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ये छह पर्याप्तियाँ हैं । जिस जीवकी ये पर्याप्तियां पूर्ण हो चुकती है वह पर्याप्त कहलाता है। इस प्रकार जो जीव भव्य होता हुआ पंचेन्द्रिय, संज्ञी और पर्याप्त हैं वही सम्यग्दर्शन प्राप्ति के योग्य होता है ॥ २ ॥ १) 1 इन्धनं. 2 उत्पत्ति. 3 सम्यग्दर्शनम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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