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- सम्यक्त्वोत्पत्तिप्रकाशनम् - 709) जात्यन्धकस्य मुकुटं किल लौहमेव
हैमं न्यवेदि निभृतेश्च तथेति तस्य । तत्त्वं तथा समधिगच्छति यत्तु दैवात्
व्युद्ग्राहितं गदितमेतदनिन्धबोधैः ॥ ७७ 710) निन्द्यो न कश्चिदिह वन्द्यतमस्तु सर्वो
देवो ऽसुरश्च जननी च जनी च सा स्यात् । इत्थं विमुग्धमतितत्त्वमनात्मनीन
मेतत्तु वैनयिकमभ्यधितादिदेवः ॥ ७८ 711) जीवानां सहजा भवन्ति हि यथाहारादिसंज्ञा दृढा
नीरूपं परमाणविरहितं द्रव्यं समग्रं यथा । तद्वत्कुत्सिततत्त्वदेवगुरुषु स्वाभाविकी शेमुषी
यत्तद्दुस्तरमीरितं जिनवरैः साक्षाद् गृहीतेतरम् ॥ ७९ उसी प्रकार अहित और हित के विचार में जो आचरण किया जाता है, अर्थात् जिस से जीव को हित और अहित का ज्ञान नहीं होता है, ऐसा जो मिथ्यात्व भाव होता है, उसे मूढ भाव को नष्ट करनेवाले जिनेश्वरों ने मूढ मिथ्यात्व (अज्ञान) कहा है ।। ७६ ॥ .
किसी जन्मान्ध राजकुमार का मुकुट लोहेसे ही बनाया गया था, परन्तु विनीत जन उसे सुवर्ण का ही बतलाते थे। तथा वह राजपुत्र भी उनके कहने से उसे सुवर्ण का ही मानता था। इसी प्रकार से जो दुसरों के कहने से दैववश वस्तुस्वरूप को अन्यथा समझता है, यह व्युद्ग्राहित मिथ्यात्व है। ऐसा प्रशंसनीय ज्ञानवाले जिनेश्वरों ने कहा है ॥ ७७ ॥
जिस प्रकार कोई पुरुष यह मानता है कि यहाँ निन्दनीय कोई भी नहीं हैं, किन्तु चाहे देव हो या असुर (दैत्य) हो और चाहे माता हो या पुत्र वधू भी क्यों न हो, ये सब ही समान रूप से अतिशय वंदनीय हैं, इसी प्रकार मूढबुद्धि पुरुषका जो तत्त्व है-देव-कुदेव एवं सद्गुरुकुगुरु आदि में कुछ भेद न करके सब को समान रूप से विनय करना है-इसे भगवान् आदि जिनेन्द्रने वैनयिक मिथ्यात्व कहा है, जो आत्मा का अहित करनेवाला है ॥ ७८ ॥
___ जैसे प्राणियों के आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार दृढ संज्ञायें- अभिलाषायेंस्वभाव से ही होती हैं, तथा जैसे परमाणुओं को छोडकर अन्य संपूर्ण आत्मा व आकाशादि द्रव्य नीरूप हैं । स्पर्श, रस, गंध व वर्ण गुणों से स्वभावतः रहित हैं, वैसे ही कुत्सित तत्त्व, देव एवं गुरु में जो स्वाभाविक बुद्धि होती है उसे साक्षात् जिनेन्द्र देव ने गृहीतेतर-बिना परोप
७७ ) 1 PD यथा. 2 P °दनिन्दबौधैः, केवलज्ञानिभिः । ७८) 1P°साम्यात्. 2 P °मतिमत्व। २४