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________________ १८४ - धर्मरत्नाकरः - - 706 ) समग्र व्यवहारेषु तथा दूरतरं नरः । संशेते' परमार्थे यत्तत्सांशयिकमुच्यते ।। ७५ । युग्मम् 707) तदुक्तम् - 1 सरसि बहुशस्ताराच्छायां दशन् परिवञ्चितः कुमुदविटपान्वेषी हंसो निशासुं विचक्षणः । न दशतिं पुनस्ताराशङ्की दिवापि सतोत्पलं * कुहचकितो लोकः सत्ये ऽप्यपायमवेक्षते ।। ७५*१ 4 2 708) न हि वमति यथोर्ध्व नोत्सृजेदप्यधस्ता' - दतिरूजितशरीरो मूढया ना विषूच्या । अहितहितविचारे ऽप्याचरेद्यत्तथैव प्रणिगदितमिदं तन्मूढमुच्छिन्नमोढ्यैः ॥ ७६ [ ९.७५ - - स्थित पक्षी व उन के घोंसले आदि का परिज्ञान न हो सकने से ' यह पुरुष है या ठूंठ हैं ' ऐसा सन्देह करने लगता है उसी प्रकार समस्त व्यवहार में परमार्थ के मोक्षमार्ग के विषय में अतिशय दूरवर्ती होने से जीव को जो 'आगम में जो तपश्चरण आदि से अनेक ऋद्धियों की सिद्धि व मोक्षसुख की प्राप्ति निर्दिष्ट की गई है वह क्या यथार्थ है अथवा यों ही क्लेश जनक है' इत्यादि प्रकार का संदेह हुआ करता है, उसे सांशयिक मिथ्यात्व कहा जाता है ।। ७४-७५ ।। सांशयिक मिथ्यात्व को सत्य में भी विश्वास नहीं रहता है इसका दृष्टान्त से खुलासा रात्रि में तालाब के भीतर कुमुद ( रात्रीविकासी कमल) के नाल को ढूंढ़ने वाला चतुर हंस चूंकि अनेक बार ताराओं के प्रतिबिंब को कुमुद समझकर खाने के लिये दौडता हुआ प्रतारित हुआ है - ठगा गया है । इसी से वह दिन में भी उन्हीं ताराओं की शंका से दिनविकासी उत्तम कमल को भी नहीं खाता है। सच है- कपट से डरा हुआ मनुष्य सत्य में भी अर्थ को देखा करता है ।। ७५१ ॥ जिस प्रकार मूढ विषूची ( अजीर्ण विशेष ) रोग से अतिशय पीडित शरीरवाला मनुष्य न वमन करता है और न विरेचन भी करता है - गुदद्वार से भी मल निकालता है । ७५)1 संदेहं करोति, D व्यवहारेषु निश्चयेषु संशयं करोति । ७५* १ ) 1PD खण्डयन्. 2 रात्रिषु. 3 P D खण्डयति. 4 कमलम्. 5 कपटयुक्तपुरुषः । ७६ ) 1 न विरेचयति. 2 रोगशरीर. 3 कथितम्. 4 जिनैः॥
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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