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- धर्मरत्नाकरः
697 ) उक्तकष्टगुर्णसंग दुर्दृशो' वार्तकीव पुरतो जनं स्तौति साभिनय मुद्गिरन्गुणान् यद्वदन्ति तमिमं
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698) अनायतनशुश्रूषा सदायतनवर्जनम् ।
कु देवलिंगपाखण्डप्रतिसेवा त्रयस्त्विमे ॥ ६८
699 ) सद्दृष्टयः किमपि कारण माकलय्य मन्त्राद्यमाहवंनिकृष्टफलप्रदायि । मध्यान्धकारितयो विधुराः स्वभावे
700 ) तदुक्तम्
जनम् ।
चरन्ति तदपि मला भवन्ति ।। ६९ । युग्मम्
701 ) एकमेव हि मिथ्यात्वं सदा दोषानिमान् प्रति । पितु मातयते' किं च कुटुम्बिसुहृद्यते ॥७०
संस्तवम् ॥ ६७
मूत्रयं मदाचाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ॥ ६९* १
[ ९. ६७
उन्मत्त (पागल) मनुष्य के समान जो उपर्युक्त कष्ट सहने वाले मिथ्यादृष्टि के प्रत्येक व्यक्ति के आगे अभिनय ( हाव-भाव ) पूर्वक वचन से स्तुति की जाति है, उसे अन्य दृष्टिसंस्तव दोष कहते हैं ।। ६७ ॥
छह अनायतनों की सेवा करना, धर्म के स्थानभूत जिनदेव, निर्ग्रन्थगुरु, शास्त्र एवं तद्भक्तों का त्याग करना, तथा कुदेव, कुगुरु व पाखण्डपूर्ण आचरण की सेवा करना ये तीन तथा जिनकी बुद्धि मूर्खतावश अज्ञान अन्धकार से दूषित हुई है तथा जो आत्मस्वभाव से विमुख हुए हैं ऐसे सम्यग्दृष्टि जन किसी भी कारण का विचार कर के युद्ध में कुछ निकृष्ट फल देने वाले मिथ्यादृष्टियों के मन्त्रादिकों का यदि उपयोग करते हैं, तो वे भी सम्यग्दर्शन को मलिन करते हैं ।। ६८-६९ ॥ वही कहा है
तीन मूढता, जाति व कुल आदि विषयक आठ मद, छह अनायतन और शंकादिक आठ दोष ये सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष हैं ॥ ६९* १॥
अकेला मिथ्यात्व ही उपर्युक्त सब दोषों के माता पिता के समान तथा वह उनका
६७) 1 निन्द्यगुण. 2 मिथ्यादृष्टिन: 3 वातूल: D वातरोगी वातुलवत्. 4 D, वैद्यजनं. 5 सविनयम्. ६८) 1 इमे त्रयः १ अना० शुश्रूषा २ आयतनत्यागी ३ कुदेव - पाखण्ड - कुलिङसेवी । ६९ ) 1 संग्रामादिजयः । ७०) 1 मातापितावदू भाति ।