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- सम्यक्त्वोत्पत्तिप्रकाशनम् -
693 ) दुष्करव्रतविहायितादिकान्निर्मितात्सुतनु भोगजन्मनाम् । raaf मरुविक्रयाद्यथा प्रार्थनं प्रकथयन्ति काङ्क्षणाम् ॥ ६३ 694 ) नग्नत्वमलिनिमादौ ' मुन्ादितस्थ मनःकुत्सा ।
द्रव्ये च पुरीषादौ विचिकित्सा दुरभिणि प्रोक्ता ॥ ६४ 695) कमनीयमकमनीयं किमपि न माध्यस्थदर्शिनः पुंसः । परिणममानं द्रव्यं तथान्यथा' रागिणी घटते ।। ६५ 696) कष्टकल्पनेमथापि विज्ञतां
डामरं किमपि वीक्ष्य दुर्दृशाम् । प्रीयते मनसि हृष्यति स्फुटं यत्प्रशंसनमवादि तद्बुधैः ॥ ६६
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या इस प्रकार के अन्य मत में निर्दिष्ट स्वरूपवाले हैं, इस प्रकार वायु के वेग से इधरउधर उडते हुए पत्ते के समान जो चंचल बुद्धि होती है उसे सज्जन शंका नामका दोष
कहते हैं ।। ६२ ॥
जैसे अज्ञानतावश अगुरु नामक अतिशय सुगंधिक चंदन बेचकर उससे लकडियों की इच्छा की जाती है वैसे दुर्धर व्रतों के परिपालन और दान आदिक उत्तम कार्यों से सुन्दर शरीर ओर इन्द्रियभोगों से उत्पन्न होनेवाले सुख की इच्छा करना, यह कांक्षा दोष है ।। ६३ ।। मुनि आदि संयमी जनों के शरीर से संबद्ध नग्नपना व मलिनता तथा विष्ठादिक दुर्गन्ध वस्तुओं को देखकर मन से ग्लानि करना, उसे विचिकित्सा नामक दोष कहते हैं ॥ ६४ ॥
जो सत्पुरुष मध्यस्थता को देखता है- अभीष्ट वस्तु से राग और अनिष्ट वस्तु से द्वेष नहीं करता है - उसके लिये स्वभावतः परिणमन करनेवाली कोई भी वस्तु न रमणीय प्रतीत होती है और न घृणास्पद भी । किन्तु इसके विपरीत जो रागी, द्वेषी पुरुष है उसे कोई वस्तु यदि रमणीय प्रतीत होती है तो कोई घृणास्पद भी ॥ ६५ ॥
मिथ्या दृष्टियों के द्वारा सहन किये जाने वाले कष्ट की कल्पना कर के तथा उनकी विद्वत्ता अथवा भयानक तप आदिको देखकर मन में प्रेम और हर्ष उत्पन्न होना उसे विद्वान् लोगों ने स्पष्टतया अन्यदृष्टिप्रशंसा दोष कहा है ।। ६६ ॥
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६३) 1 दानात्, D दानादि. 2 इन्धनानाम् प्रार्थनम्. 3PD ° विक्रयाद् । ६४ ) 1 मलिनिमात्र • भूति. 2 यत्यादौ शरीरस्थिते मले, 3 घृणा, D जुगुप्सा 4 दुष्टैः । ६५ ) 1 मनोज्ञम्. 2 कमनीयादिविचारणा. 3 D रागिणो हर्षं कुर्वन्ति । ६६ ) 1 पञ्चाग्निनादिसाधनी. 2 मिथ्याज्ञानादि. 3 मिथ्यादृष्टीनाम् ।