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________________ १८० - धर्मरत्नाकरः [९.५९689 ) रूपं मन्मथहन्मथं कुलमलंकारो ऽपि में भृतले जातेर्जातिकली मपी धनपति ग्ये धने किंकरः । सर्वज्ञो ऽप्यबुधो ऽस्ति बुद्धिविभवाच्छिल्पोत्सरस्वत्यपि भीमो मे बलतो ऽवलीति तपसः ख्यातास्तपस्वीशिनः ।। ५९ 690) असकृन्मदकुद्दालीमाददते दृष्टिकन्दैदलनार्थम् । इत्थं व्यर्थकथायां मिथ्याहंकारकुथितनराः ॥ ६० । युग्मम् 691) मिथ्यादृष्टिानं चरणममीभिः समाहितः पुरुषः । दर्शनकल्पद्रुमवनवह्निरिवेदं त्वनायतनमुज्झ्यम् ॥ ६१ 692) देवतत्त्वगुरवो नु तादृशा ईदृशा इति नु चञ्चलां घियम् । वायुवेगधुतपत्रसन्निभं शङ्कनं तु निगदन्ति सज्जनाः ॥६२ यदि वे जिनागममें स्वतः प्रवृत्त होते हैं तो जिनागमकथित देव, गुरु व शास्त्रका स्वरूप कह. कर उनका हित करना अनुग्रह माना गया है ।। ५८*३ ॥ __ मेरा रूप कामदेव के हृदयको पीडा देने वाला है, मेरा कुल इस भूतल में अलंकार स्वरूप है, मेरी जाति अन्य जातिको मलिन करनेवाली मषी (स्याही) के समान है, मुझे जो भोग्य धन प्राप्त हुआ है उसके लिये कुबेर भी मेरे सामने किंकर- आज्ञाकारी सेवक - के समान है, मेरे बुद्धिवैभव के सामने सर्वज्ञ भी मूर्ख है, मेरे शिल्पके सामने सरस्वती भो मूखा है, मुझ में जो बल है, उसके आगे भीम भी निर्बल है, तथा मेरे तप से तपस्वियों के अधिपति प्रसिद्ध हुए हैं इस प्रकार झूठे अभिमान से नष्ट हुए मनुष्य निरर्थक कथा वार्ता में सम्यग्दर्शन रूप धर्म को जड को उखाडने के लिये निरन्तर गर्वरूप कुदाली को ग्रहण किया करते हैं (तात्पर्य, सौन्दर्य, कुल एवं जाति आदिका गर्व करने से सम्यग्दर्शन का नाश होता है। अतः गर्व नहीं करना चाहिये) ॥ ५९-६० ॥ मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र तथा इनके धारक पुरुष ये छह अनायतन- धर्म के अस्थान- हैं। ये सम्यग्दर्शनरूप कल्पवृक्ष को भस्म करने के लिये दवाग्नि के समान हैं । अतः इन को छोडना चाहिये ॥६॥ देव, जीवादि तत्त्व और गुरु ये जैसे कि आगम में निर्दिष्ट किये गये हैं, वैसे ही हैं ५९) 1 अष्टमदा:- १ रूपस्य २ कुल ३ जाति ४ धन ईश्वर ५ बुद्धि ज्ञान ६ शिल्पि ७ बल ८ तपः. 2 D चित्तमथकं. 3D मम कुलं. 4 कुबेरः. 5 शिल्पिविज्ञानशिल्पादिज्ञानात् D विज्ञानात्. 6 भीमः पाण्डवः. 7 इति अष्टमदाः । ६०) 1 निरन्तरमदयुक्तम्, D वारंवारं 2 सम्यग्दर्शनकन्द। ६१) 1 मिथ्यादृष्टि-ज्ञानचरण:=३ मिथ्यादर्शना दि=३ तद्वन्तः नराः= ६ अनायतन, D अष्टमदैः. 2 त्याज्यम् । ६२)1 D यादृशा जिनशासने तादृशाः परमते. 2 D °सन्निभां ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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