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- ९.५८ *३]
- सम्यक्त्वोत्पत्तिप्रकाशनम् -
परार्थमुपरोधाद्वा लोकयात्रार्थमेव वा । उपासनममीषां स्यात्सम्यग्दर्शनहाये ॥ ५८
686 ) तदुक्तम्
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स्पर्शो ऽमेध्यभुजां' गवामघहरों वन्द्या विसंज्ञा द्रुमाः स्वर्गश्छागवधाद्धिनोति च पितॄन् विप्रोपभुक्ताशनम् । आप्तांश्छद्मपराः सुराः शिखिहुतं प्रीणाति देवान् हवि रित्थं फल्गु च दुर्जयं च जगति व्यामोहविस्फूर्जितम् ॥ ५८* १ 687 ) तथापि यदि मूढत्वं न त्यजेत्को ऽपि सर्वथा ।
मिश्रत्वेनानुमान्यो ऽसौ सर्वनाशो न सुन्दरः || ५८२ 688) न स्वतो जन्तवः प्रेर्या दुरीहासु' जिनागमे । स्वत एव प्रवृत्तानां तद्धितो ऽनुग्रहों मतः ॥ ५८३
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जानेवाली इनकी उपासना - भक्ति - सम्यग्दर्शन की हानि का - उसके विनाश का कारण होती है ॥ ५८ ॥ सो ही कहा है-
जो गायें अपवित्र विष्ठाका भक्षण किया करती हैं- उनका स्पर्श पाप को नष्ट करता हैं, चेतना शून्य - विशेष विचार से रहित पीपल आदि वृक्ष वन्दनीय हैं, बकरों के वध से स्वर्ग प्राप्त होता है, श्राद्धकर्म में ब्राह्मणों के द्वारा उपभुक्त भोजन पितरोंको मृत माता-पिता आदि पूर्वजों को- तृप्त करता है, कपट में निरत रहनेवाले देव आप्त हैं, तथा अग्नि में होमा गया घृत आदि हवनीय द्रव्य देवताओंको प्रसन्न करता है, इस प्रकार की यह घोषणा मूर्खताके वश की जाती है जो कि निरर्थक व लाभहीन है - ( तात्पर्य यह • उपर्युक्त सब कथन मूढ मिथ्यादृष्टियों के द्वारा किया जाता है, जो भोले प्राणियों को धर्ममार्ग से च्युत करनेवाला है ॥ ५८* १ ॥
इस मूढबुद्धि को दूर करना अभीष्ट है तो भी यदि कोई मूढ इस प्रकार की मूढता को पूर्ण रूप से नहीं छोडना चाहता है, तो उसे मिश्रपने से अनुमति करना चाहिये । कारण यह की यदि उसे मिश्रपनेसे मान्य नहीं किया जायेगा तो सर्वनाश की सम्भावना है, जो सुन्दर नहीं कही जा सकती है ॥ ५८२ ॥
प्राणियों को दुष्प्रवृत्तियों में तत्पर रहने के लिये स्वयं प्रेरणा नहीं करनी चाहिये ।
५८) 1 परनिमित्तात्. 2 सेवनम्. 3 पिप्पलादीनाम्. 4 विनाशाय । ५८ * १ ) 1 गवां गूथभक्षकाणाम्. 2 पापहर: 3 एकेन्द्रियाः पिप्पलादय: D पिप्पलादय: 4D घृ [ तृ] प्ति प्राप्नोति 5 विप्रभुक्तमाहारम्. 6 सर्वज्ञा:. 7 घृतादिवस्तु होमयोग्यम्. 8 असत्यम् । ५८* ३ ) 1 दुष्टाशासु. 2 तेषाम्. 3 प्रसाद :. 4 Dकथितः।