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________________ १७७ १७७ -९.५४] - सम्यक्त्वोत्पत्तिप्रकाशनम् - 677) पित्रादितर्पणप्रायं पापश्रुतिसमाश्रयम् । इत्थं समयमूदत्वं कियद्वा विवृणोम्यहम् ॥ ५०। युग्मम् । 678) अज्ञलोकबहुतापतितं तीर्थकादिगमनोत्सवाश्रयम् । एकगो ऽनुगतगोसमूहवद् यत्स्वयं तदनुवर्तनं मुधां ॥५१ 679) आपगानदसमुद्रमज्जन शस्त्रशैलतरुरत्नसेवनम् । स्थाणुदेहलिकुंटादिपूजनं लोकमूढमिति कथ्यते कियत् ॥ ५२ । युग्मम् । 680) एते देवाः समयविहिता ईदृशाश्च क्रिया वा मुग्धैर्लोके रचितकुहका मुक्तिपर्यन्तसौख्यम् । चेद्यच्छेयुः परिणतधियां कार्यपर्यन्तकष्टं योगाभ्यासो भवति हि वृथा सुप्रियद्रव्यदानम् ॥ ५३ 681) वालुकानिचयपीडनं यथा सर्ववारिपरिमन्थनं यथा । ऊपरे च विविधा कृषियथा क्लेशिकेषु हि तथा वृथा क्रिया ॥ ५४ आदि करना, इत्यादि कार्य जो पापश्रुति (वेदादि) के आश्रय से किये जाते हैं उनको समय मूढता के अन्तर्गत समझना चाहिये । इस प्रकार की समयमूढता का वर्णन मै कहाँ तक कर सकता हूँ ॥ ४९-५० ॥ ___ जिस प्रकार एक गाय जिधर जाती है उधर उस के पीछे अन्य गायों का समूह चल पडता है, उसी प्रकार गतानुगतिक रूप से जो अनेक अज्ञानियों के द्वारा प्रवर्तित तीर्थ गमनादि के आश्रित कार्य किये जाते हैं वे तथा नदी, नद एवं समुद्र में स्नान करना, तलवार आदि शस्त्र, हिमालयादि पर्वत, एवं रत्नों की आराधना करना, और शिवलिङग, देहली और घट आदि की पूजा करना, इत्यादि कार्य जो देखादेखी धर्म समझकर किये जाते हैं उनको लोकमूढता कहा जाता है । उनका कितना वर्णन किया जा सकता है ? ॥ ५१-५२ ॥ अन्य शास्त्रों में कहे हुए ये देवता और मूर्ख जनों के द्वारा रचित इन्द्रजाल आदि के समान भ्रमको उत्पन्न करने वाली इस प्रकारको क्रियायें यदि मुक्ति तक के सुख को दे सकती हैं, तो फिर निपुण पुरुषों का शरीरनाशक कष्ट, योगाभ्यास और प्राणप्रिय द्रव्यका दान, यह सब निरर्थक ही सिद्ध होगा ॥ ५३ ॥ ___ जिस प्रकार वालुका को पानी में पीलना, पानी का मन्थन करना और ऊबर arwwmarrrrrr ५०) 1D पापशास्त्रश्रवणं.2D अनमेदनसमयमूढ । ५१) 1D अज्ञानलोक. 2 वृथा, वृथा सर्व निष्फलं मूढत्रयम् । ५२) 1 नदी. 2 स्नानं बुडनं वा, D ब्रुडनं. 3 सूर्यकान्तादि. 4 ईश्वरलिङग.5 घटादि, D उर्षली इति लोके । ५३) 1 P °मुग्धैर्लोक. 2 पाखण्ड, D रचितवऋता. 3 ददन्ति. D यदि चेत् मुक्तिपर्यन्तं सौख्यं ददति तदा मोक्षनिमित्तं तदादि कथं क्रियते. 4 पञ्चाग्नि-पत्रफलभोजनादि-अनशन ५४) 1 मिथ्यादृष्टिषु । २३
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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