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________________ १७६ ... -धर्मरलाकरः - 674) धात्री तथाप इति पावकवायुवृक्षाः प्रायेण पुष्करमपीह विचेतनाश्च । खातावगाहपरिदाहपरिश्रमाप नोदच्छिदायनुगुणाः किल देवभावात् ॥ ४७ 675) एषामुपास्तिनिरता भुवि देवमूढा चित्रं किमत्र यदमी न विचेतनाः स्युः । निःशेषदोषगुणविच्युतिपूतिमत्त्वं देवत्वमित्युपहता हि धियैतया तत् ॥ ४८ 676) सूर्या! ग्रहसंक्रमादिसमये स्नानं च दानं जपो गोपृष्ठान्तवटादिभूरुहमतिर्गोमूत्रसेवादिकम् । पञ्चत्वाप्तजलादिदानसमयः पिण्डप्रदानात्क्वचित् स्वानेकान्वयतारणं पशुवधश्चण्ड्यादिदेव्याः पुरः ॥ ४९ उपासना करने में जो आसक्त हैं, उनको तथा जो पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वृक्ष आकाश ये सब जो प्रायः अचेतन- स्थावर एकेन्द्रिय-हैं उनको भी क्रमसे खात (खाई या खोदना,) स्नान, जलाना, परिश्रम को दूर करता और छेदा जाना आदि (स्थान देना) गुणों से विशिष्ट होने के कारण देव समझकर इनकी उपासना करनेवाले को भी देवमढता में तत्पर समझना चाहिये । समस्त दोषों से मुक्त होकर जो गुणों से परिपूर्ण हो वह देव होता है, इस प्रका. रकी बुद्धि से शून्य होने के कारण उपयुक्त देवमूढता में प्रवृत्त रहने वाले वे यदि अचेतन नहीं है तो इस में क्या आश्चर्य है ? अर्थात् ऐसे अज्ञानी प्राणियों को जड ही समझना चाहिये ॥ ४६-४८ ॥ सूर्य को अर्घ्य देना, मकर संक्रान्ति आदि के समय स्नान, दान और जप करना गायकी पूँछ के अन्तर्भाग को नमस्कार करना, वट व पीपल आदि वृक्षों को पूजना, गोमूत्र आदिका सेवन करना, मरे हुए बन्धु आदिकों को जलादि देना, पिण्डदान से अपने अनेक संबन्धीजनों का उद्धार करना, चंडी आदि देवताओं के आगे पशुवध करना तथा पितृतर्पण ) 1 P D जल. 2 गगनम् । ४८) 1 पृथ्वीजलतेज:पवनवनस्पतिगगनदेवानाम. 2 सेवा. 3 देवमूढा:. 4 एकेन्द्रियाः. 5 PD भवेयुः. 6 पूरम् । ४९) 1 चन्द्रसूर्यग्रहणादि, D संक्रान्तिदिने, 2 मृत्युप्राप्ते सति. 3D अग्र।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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