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- सम्यक्त्वोत्पत्तिप्रकाशनम् - 670) दृष्टिबोधचरणत्रयात्मको मार्ग आलयनिवासिना सदा।..
एक एव विकलो व्युपास्यते स्वात्मशक्तिमनिगहता सतां ॥ ४३ 671) तस्य तरोरिव मूलं प्रासादस्येव गर्तपूरैश्च ।
बीजमिव चाङ्कुराणां मूलं सम्यक्त्वमित्याहुः ॥ ४४ 672) यत्तत्त्वानां तीर्थनाथोदितानां मूढत्वाद्यैः सर्वदोषैविमुक्तम् ।
श्रद्धानं तन्निश्चयात्स्वस्वरूपावस्थानं वा निर्मलं निश्चलं वा ॥ ४५ 673) ये दानवादिविसरस्य' बधप्रधाना
ये शस्त्रसंभृतकराः करुणासुदूराः। ये मूर्तरागमयमूर्तितया प्रतिष्ठा ये दुःखिनः स्वचरितात् परदुःखदाश्च ॥ ४६
गृह में निवास करनेवाले श्रावक को अपनी शक्ति को न छिपाते हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र स्वरूप जो एक मोक्षमार्ग है उसका पूर्णरूपसे ही आश्रय करना चाहिये । ४३ ॥
जिस प्रकार वृक्षका आधार उसकी मूल (जड) है, गृहका आधार उसकी नींव है और अंकूरों का आधार बीज है, उसी प्रकार रत्नत्रय स्वरूप उस मोक्षमार्ग का आधार- मूलकारण वह सम्यक्त्व है ॥४४॥
तीर्थप्रणेता जिनेन्द्रों के द्वारा उपदिष्ट जीवादि तत्त्वों का जो तीन मूढता आदि सब (पच्चीस) दोषों से रहित निर्मल व निश्चल श्रद्धान होता है उसे अथवा आत्मस्वरूप में अवस्थान को निश्चय से सम्यग्दर्शन समझना चाहिये । (अभिप्राय यह है कि, जीवादि सात तत्त्वों के यथावत् श्रद्धान को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं तथा आत्मपर विवेक को निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं ॥ ४५ ॥
जो दानवादि समूह का वध करने में प्रधान हैं, जिन के हाथों में शस्त्र विद्यमान हैं, जो करुणा से बहुत दूर-निर्दय- हैं, जो मूर्तिमान रागमय मूर्तिस्वरूप से अवस्थित हैं, तथा जो अपने आचरण से स्वयं दुःखी हैं और दूसरों को भी दुःख देते हैं उन्हें देव समझकर उनकी
४३)1 D मोक्षमार्गः. 2 गृहनिवासिना, D उपासकेन. 3 D मनोज्ञ, 4 D अनाच्छादित]वता.5 सत्पुरु घेण । ४४) 1 नीव, अधिष्ठानम्. 2 D कथयन्ति । ४५) 1 त्रिमूढादिः.2 D सम्यग्दर्शनं. 3.P D°श्वलंच । ४६) 1 जीवसमूहस्य वधदक्षाः, D समूहस्य. 2 प्रधानाः. 3 स्थिताः. 4 D कुत्सितदेवाः। :