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- धर्मरत्नाकरः666) अनाप्तपूर्व श्रयतामिदं पदं करम्बिताचारपराङ्मुखी सदा ।
मुनीशिनां वृत्तिरलौकिकी भवेन् महाविरत्या पविभासितोदया ॥ ३९ 667) काम समस्तविरति प्रणिशम्य तां यो
धर्तुं सहश्चरितमोहबलोदयान। तस्यैकदेशविरतिः प्रतिपादनीया
प्रक्षिप्य बीमिदमन्तरनन्तशक्तिम् ॥ ४० 668) विमुक्तिसिद्धथै गृहधर्ममादिशेदनुदिशन्' यो मुनिधर्ममादितः ।
अमुष्यं सर्वज्ञमहागमे पशोः प्रदर्शिता दुस्सहनिग्रहस्थितिः ॥ ४१ 669) व्यत्ययानुवदनेन विनेयं प्रोत्सहन्तमपि दरमतीव
मन्यमानमपदे ऽपि हि तृप्तं स्वं प्रतारयति देशकपाशः॥४२
......जिस मोक्षपद को कभी पूर्व में नहीं प्राप्त किया गया है, उसका आश्रय लेनेवाले मुनीन्द्रजनों की प्रमादमिश्रित होन आचरण से सदा विमुख रहनेवाली वृत्ति (अनुष्ठान) अलौकिक- लोकातिशायिनी - ही होती है । इस असाधारण वृत्ति का प्रादुर्भाव महाविरति से -हिंसादि पापों की पूर्णतया निवृत्ति से होता है ॥ ३९॥
... जो महाव्रतों के स्वरूप को अतिशय सुनकर भी चारित्रमोह के प्रबल उदय से उनके धारण करने में समर्थ नहीं होता है, उसके अन्तःकरण में अनन्तशक्तिस्वरूप इस बीजका प्रक्षेप कर के एकदेशविरति के अहिंसाणुव्रत आदि पंचाणुव्रतों के स्वरूपका व्याख्यान करना चाहिये ॥ ४० ॥
- जो गुरु मोक्षप्राप्ति के लिये प्रथमतः मुनिधर्म का उपदेश न करके गृहस्थ धर्म का उपदेश देता है उस पशुको- अज्ञानी उपदेशक को- सर्वज्ञ के महागम में दुस्सह निग्रहस्थान निर्दिष्ट किया गया है ॥ ४१ ॥
___ इसका कारण यह है कि जो शिष्य अतिशय दूरवर्ती पद- मुनिधर्म - के लिये उत्साहित हो रहा था वह इस क्रमविपरीत उपदेश से अपद में-श्रावक धर्मरूप हीन पद मेंसंतुष्ट हो कर उसे ही स्वीकार कर लेता है। इस प्रकार वह निकृष्ट उपदेष्टा अपने उस शिष्य को प्रतारित करता है- मुनिधर्म से वंचित करता है ॥ ४२ ॥
३९)1 अलब्धपूर्वम्, D अप्राप्तपूर्व. 2 मिश्रिता, D मिश्राचारतः अपरा सम्यग्दृष्टिः । ४०)-1 अतिशयेन, D अत्यथै. 2 प्रथमं मोक्षाय महाव्रतं कथनीयं. 3 प्रश्रूय ताम्. 4 समर्थः, D धारितुं न शक्यः. 5 तस्याणुव्रतं स्यात्. 6 सम्यक्त्वपूर्वकं बीजम्. 7 रत्नत्रयात्मकं निश्चयधर्म । ४१) 1 कथयन्. 2 अस्य, D यः प्रथममणुव्रतं कथयति स आगमं न जानाति तस्य मुनेमहादण्डो भवति. 3 P°प्रदर्शितो। ४२) 1 P°दानादि, D अन्यकथनेच.2PD शिष्यं प्रति. 3 आत्मानम्. 4 उपदेशक, D कुश्चि [ सि] तवेधकः।