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सम्यक्त्वोत्पत्तिप्रकाशनम् -
663) पथद्भवसुखहेतो र भिलक्ष्यं पुण्यमाह तद् द्विविधम् । इतरत्पापं द्वयमिति पश्यत्यद्वैतमेव तद्विद्यः ॥ ३७
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664) उक्तं च
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यदभिरुचितमस्मै' मन्यते तद्धि पुण्यं यदनभिरुचितं तु प्राह तत्पापमन्धः ।
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प्रविलसति सदा तद्द्वैतमद्वैतमेव स्फुरति हृदयगर्भे तावकं यस्य तेजः || ३७१ | पदार्था नव । 665) जिहासतां' संसृतिडाकिनीमतो निरस्य दूराद्विपरीतमाग्रहम् । ब्यवस्यं सम्यनिजबीजमङ्गिनामुपायतैषा पुरुषार्थसिद्धये ॥ ३८
जो जो--अहिंसा व सत्य संभाषण आदि-अनुष्ठान सांसारिक सुख के हेतुरूपसे अभिलक्षित होता है, उसे पुण्यस्वरूप के ज्ञाता पुण्य कहते हैं । इस से विपरीत जो हिंसा व असत्य भाषण आदि - दुख के हेतु स्वरूपसे लक्षित होता है उसे पाप जानना चाहिये । इस प्रकार व्यवहारसे ये दो हैं । परन्तु तत्त्वज्ञानी जीव इस पुण्य - पापके द्वित्व को न देखकर वह उन दोनों से रहित एकमात्र ( अद्वितीय) आत्मा को ही देखता है ॥ ३७ ॥ वही कहा भी है
जो इसके लिये रुचिकर प्रतीत होता है उसे अज्ञानी जीव पुण्य मानता है तथा जो उसे रुचिकर नहीं प्रतीत होता है उसे वह पाप कहता है। उसकी दृष्टि में यह पुण्य - पापका द्वैतभाव निरन्तर विलसित रहता है, किन्तु हे भगवन् जिस भव्य जीव के अन्तःकरण में आपका प्रभाव प्रस्फुरित है, जो आप्त आगम व पदार्थका यथार्थ श्रद्धान करता है - उसके हृदय के भीतर अद्वैत ही प्रकाशमान होता है || ३७* १ ।। इस प्रकार जीवादि नौं पदार्थों का कथन समाप्त हुआ ।
जो प्राणी संसाररूप पिशाच से मुक्ति प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें विपरीत आग्रह मोक्षपदकी प्राप्ति के को - परपदार्थों में आत्मबुद्धि को छोडकर भली भांति निजबीज का बीजभूत रत्नत्रय का निश्चय करते हुए पुरुषार्थ सिद्धि के लिये यह- आगे कही जानेवाली मुनीन्द्रवृत्तिरूप- - उपाय करना चाहिये ॥ ३८ ॥
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३७) 1 पुण्यपदार्थ म्. 2 पापपदार्थम् । ३७* १ ) 1 अन्धाय 2 अज्ञः । ३८ ) 1 त्यक्तुमिच्छूनाम्. 2 ज्ञात्वा सम्यग्दर्शनबीजम्, D ज्ञाला. 3 मुनीशिनां वृत्तिः ।