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________________ - सम्यक्त्वोत्पत्तिप्रकाशनम् - 656) प्रतिभासः ससंतानो' भवबीजं प्रजायते । क्षीरनीरगतैकत्वज्ञानैवन्निर्विवेकिनाम् ॥३१ -९. ३२ ] 657 ) तदुक्तम् - रंज्जुर्नास्ति भुजङ्गः श्वासं कुरुते च मृत्युपर्युक्तम् । - भ्रान्तेर्महती शक्तिर्न विवेक्तुं शक्यते विकलैः ।। ३१*१ 658) भ्रमीभवन् हृष्यति मूच्छति क्वचित् क्वचिद्विषीदत्यपि विश्वसित्यपि । परस्वरूप' Seमिति प्रबोधभाक् यथा नटः संश्रितभूमिकान्तरः ॥ ३२ १५१ जनों को वह आत्मा उक्त कर्मपुद्गलों के साथ अभेदरूपता को प्राप्त हुआ ऐसे प्रतीत होता है । जैसे कि पथिक (यात्री) को मार्गके पृथिवी से भिन्न होने पर भी वह उससे अभिन्न प्रतीत होता है । तथा संसारी प्राणियों को जैसे कुल के बन्धुत्वसे भिन्न होने पर भी वह उन्हें उससे अभिन्न प्रतीत होता है ॥ ३० ॥ जैसे विवेकरहित मनुष्यों को दूध और पानी के भिन्न होने पर भी उनमें एकरूपताकी प्रतीति होती है, वैसे ही विवेकहीन बहिरात्मा प्राणियों को जीव से कर्म के भिन्न होने पर भी उनमें अभेद की प्रतीति हुआ करती है । यही प्रतिभास संतानरूप से उनके संसार का कारण होता है ॥ ३१ ॥ वही कहा भी है रस्सी सर्प नहीं है, ( परंतु उसे देख नेपर बुद्धिविहीन लोग सर्प की भ्रान्तिसे) अन्तिम निःश्वास छोड़ते हैं । भ्रान्ति में बडी शक्ति है । उसका विचार अज्ञानी जन नहीं कर सकते हैं ॥३१*१॥ RSS यह जीव भ्रान्त होकर किसी पदार्थ में हर्षयुक्त होता है, किसी को देखकर भय से मूर्च्छित होता है, किसी को देखकर खिन्न होता है और किसी में विश्वास भी करता है । पर पदार्थों में ‘ये मेरे हैं और मैं उनका हूँ ' ऐसा विपरीत ज्ञान होने से वह नट के समान भिन्न भिन्न भूमिका (वष और अवस्था को) धारण करता है ॥ ३२ ॥ ܘ 3 P° पर्यक्तम् । ३२ ) 1 हृष्यति मूर्च्छति इत्यादि. 2 कुज्ञानसेवक: 3D नटवत् ३१) 1 अज्ञानिनां ज्ञानम्. 2 कर्मबन्ध: 3P ज्ञानवान् । ३१* १ ) 1 P रज्ज्वा. 2 उच्छ्वसिति संसारे रूपं घरति ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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