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________________ १७० (९. २८ - धर्मरत्नाकरः - 653) परिणमतां स्वयमेषां कर्माणुप्राणिनामयं बन्धः । बीजाङ्कुरवदनादिस्तिलतैलवदादिमान् कथंचित्स्यात् ॥ २८ 654) एतेने बध्यंबन्धकमूर्तामूर्तादिबन्धचोद्यानि । ___अपसारितानि दूरं भावानां वाप्यनन्तशक्तित्वात् ॥२९ 655) स्वैर्भावैः परिणामिनश्चितिमयनित्यं स्वयं चेतितुः कर्मत्वं विभिदेलिमा अपि तरां गच्छन्ति ही पुद्गलाः । अध्वन्यस्य धराध्वनामिव कुलं बन्धुत्ववज्जन्मिनामेकत्वं गतवद्विभाति हि पुमानाबालिशानां ततः ॥ ३० (भावास्रव) कहते हैं, और जो कर्मद्रव्य आत्मा में आता है उसे पौद्गलिक (द्रव्य) आस्रव कहते हैं, जो गौण आस्रव है ऐसा आगममें कहा गया है । तात्पर्य - शरीर, वचन और मन की चंचलता से आत्मा के प्रदेशों में जो चंचलता होती है, उसे मुख्य आस्रव अर्थात् भावास्रव कहते हैं । तथा उनकी चंचलतासे आत्मा के प्रदेशों में जो अनन्तानन्त कर्मपरमाणु समूह आता है उसे गौण आस्रव अर्थात द्रव्यास्रव कहते हैं ॥ २७ ॥ - स्वयं परिणमन स्वभाववाले इन कर्मपरमाणुओं और प्राणियों का परस्पर एकक्षत्रावगाहरूप जो संबन्ध होता है वह बन्ध कहलाता है । वह बीज और अंकुरकी परम्परा के समान कथंचित्-अनादि और तिल व तेलके समान कथंचित्-सादि भी है ।। २८ ॥ ____ उपर्युक्त कथनसे 'बन्धके योग्य पौद्गलिक कर्म मूर्तिक और बाँधनेवाला जीव जब मूर्तिक है तब उनमें परस्पर बन्ध कैसे हो सकता है ? अर्थात् वह असम्भव है' इत्यादि आशंकाओंका निराकरण किया गया समझना चाहिये। कारण कि जीव में और कर्मरूप बननेवाले पुद्गलों में अनन्त शक्ति है, जिससे कर्म और आत्मा परस्पर बद्ध होते हैं । आगम में आत्मा को अनादि कर्मबन्धन पर्यायकी अपेक्षासे कथंचित् मूर्तिक और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षासे अमूर्तिक माना गया है । इसलिये आत्मा के साथ पौद्गलिक कर्मों के बन्धन में कोई विरोध नहीं है ॥ २९॥ , यह आत्मा अपने चैतन्यस्वरूप भावों-रागद्वेषादि परिणामों-से निरन्तर स्वयं ही परिणत होता रहता है और तब उस अवस्थामें उससे पृथग्भूत पुद्गल उसके साथ संबद्ध होकर कर्मरूपताको प्राप्त होते हैं । इस प्रकार आत्मासे उन कर्म पुदगलोंके पृथक् होनेपर भी अज्ञानी " २८) 1 D भवेत । २९) 1 D प्रकारेण. 2 पुद्गल. D जीवः कर्ता. 3 दूरीकृतानि । ३०) 1 भावकर्मस्वरूप.2 जीवस्य..3 °चिन्मयनि.,D °चिनुमय° °चेततः, जीवस्य, D आत्मनः. 5 भेदं विभिन्नं गच्छन्ति, D भिन्ना अपि पुदगला: कर्मत्वं प्रणमन्ति. 6 पथिकस्य., D पथिकस्य गच्छत धरां मार्गो भवति यथा.7 पुरुषः आत्मा. अनादिअज्ञानिनाम् ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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