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________________ -९:२७) - सम्यक्त्वोत्पत्तिप्रकाशनम् - 649) मन्त्रनियतो ऽप्येषो ऽचिन्त्यशक्तिः स्वभावतः । अन्तःशरीरतो ऽन्यत्र न भावो ऽस्य प्रमान्वितः ॥ २४*२ 650) धर्माधौं तथाकाशं कालः पुद्गल इत्यपि । अजीवाख्यास्त एव स्युविविधैः पर्ययैर्युताः ॥ २५ 651) गतिस्थिती अरोध' च वस्तुष्वपि परीणतिम् । क्रमावर्णादिरूपो ऽणुः कायादीनुपकुर्वते ॥ २६ 652) कायवाङ्मनसां कर्म शुभाशुभविभेदतः। आस्रवो मुख्यरूपेण गौणः पौद्गलिको ऽकथि ॥ २७ है-नौका मल्लाह को प्रेरित करती है और मल्लाह नौका को प्रेरित करता है- उसी प्रकार जीव और कर्म इन दोनों में परस्पर प्रेरक स्वभाव के अनुसार जीव कर्म को प्रेरित करता है। और कर्म जीव को प्रेरित करता है । इस प्रकार इन दोनों का अन्य कोई तीसरा प्रेरक नहीं है ॥ २४ *१॥ यह जीव मन्त्र के समान नियत होकर भी स्वभाव से अचिन्तनीय शक्ति से संयुक्त है उसका सद्भाव शरीर को छोडकर और कहीं पर भी प्रमाण से सिद्ध नहीं है। वह लोकाकाश के समान असंख्यात प्रदेशी होकर भी समुद्घातको छोडकर निरन्तर प्राप्त हुए शरीर के भीतर ही अवस्थित रहता है । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मन्त्र मान्त्रिक को छोडकर अन्यत्र नहीं रहकर भी अचिन्त्य शक्ति से विषनाशक अपूर्व सामर्थ्य से- संयुक्त होता है, उसी प्रकार शरीर के भीतर अवस्थित यह जीव भी मुक्तिप्राप्तिरूप अपूर्व शक्ति से संयुक्त है ॥२४*२॥ धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ये पाँच द्रव्य अजीव द्रव्य हैं और वे अनेक प्रकार की पर्यायों से युक्त हैं ॥ २५ ॥ उक्त पाँच अजीव द्रव्यों में क्रम से धर्म, द्रव्य, जीव और पुद्गलों की गति, अधर्म द्रव्य उनकी स्थिति, आकाशद्रव्य उन के न रोकने रूप अवकाशदान और कालद्रव्य जीवादि वस्तुओं में नूतन जीर्णादि परिणतिस्वरूप उपकारों को करता हैं। वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श गुणों से युक्त अणु पुद्गल द्रव्य शरीरादिरूप उपकार को करते हैं ॥ २६ ॥ शरीर,वचन, और मनकी जो शुभ और अशुभ क्रिया होती है उसे मुख्य रूप से आस्रव २४*२) 10 यथा मन्त्र अनन्तशक्तिप्रभावः तथा जीवः. 2 आत्मा जीवो वा. 3 D°अतःशरीर. शरीरभाव: पुद्गलस्य. 4 अतः कारणात् शरीरतोऽन्यत्र भिन्न अस्य शरीरस्य भावो जीवो न भवति प्रमाणतः. 5 प्रमाणतः । २५) 1 पर्यायान्विताः । २६) 1 गतिस्थिती द्वे धर्माधर्मयोः अरोधम् अवकाशम् आकाशस्य, D अवकाशं. 2 कालस्य परिणतिः, D नवजीर्णतां. 3 परमाणुः. 4 उपकारं करोति । २७) 1 भावाश्रयरूपेण जीवपरिणाम:.2 द्रव्याश्रयः कर्माण.... 3 कथितः। २२
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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