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________________ १६० -- धर्मरत्नाकरः [९:२३तत्र चतुर्वर्गपदार्थास्तावज्जीवमुख्यतया निरूप्यन्ते646) स्पर्शरूपरसगन्धगीरितः। पूरुषो ऽस्ति गुणपर्ययान्वितः। ध्रौव्यजन्मविलयैः समाहितो विश्वरूपपरिणाममालितः ॥ २३ ॥ 647) ज्ञानांविविधः सदा परिणमन् सो ऽनादिसंतानतो भागानां स्वचितों भवेनियमतः कर्ता च भोक्ता प्रभुः । चैतन्यं सकलर्विकल्पगहन_नं यदा प्राप्नुयात् विज्ञेयः पुरुषार्थसिद्धिसहितः संपूर्णभावस्तदा ॥ २४ . 648) तदुक्तम् प्रेर्यते कर्म जीवेन जीवः प्रेर्यंत कर्मणा । एतयोः प्रेरको नान्यो नौनाविकसमानयोः ।। २४*१ समुद्र के तरंगसमूह नाश और उत्पत्तिसे समुद्र से अभिन्न हैं । सर्वथा क्षणिक और नित्य पक्ष को स्वीकार करने पर बन्ध्या आदि (?) कथासमूह नष्ट हो जाते हैं - वन्ध्यासे पुत्रोत्पत्ति के समान एकान्त से सर्व जीवादि पदार्थों की सिद्धि कथायें व्यर्थ होती हैं ।। २२ ॥ ___उन में जीवको मुख्यतासे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के कारणभूत जीवादिक पदार्थों का निरूपण किया जाता है - ___ स्पर्श, रूप रस, और गन्ध से रहित, गुण व पर्यायों से सहित, ध्रौव्य उत्पाद और नाश से समन्वित तथा विश्वरूप परिणामों से सुशोभित ऐसा पुरुष (जीव) है ॥ २३ ।। - वह जीव अनादि परम्परा से परिणममान अनेक प्रकार के ज्ञान के भागों से-उसको पर्यायों से निरन्तर परिणत होता हुआ नियम से स्वकीय चैतन्य के भागोंका आत्मपरिणामों का कर्ता, भोक्ता और स्वामी है। जब वह समस्त विकल्परूप वनसे रहित चैतन्य भाव को प्राप्त कर लेता है, तब संपूर्ण भावों से सम्पन्न उस को 'पुरुषार्थ सिद्धि से-आत्मा के प्रयोजनीभूत मोक्ष की प्राप्ति से- सहित जानना चाहिये ।। २४ ॥ वही कहा भी हैजिस प्रकार नोका और मल्लाह (उसको चलाने वाला) इन दोनों में परस्पर प्रेरकता २४॥ २३)1 मिलित, D संसारी जीव: स्पर्शरूप इत्यादि युक्त. 2 आत्मा. 3 शोभितः, D असंख्यातपरिणामयुक्तः । २४) 1 शुभाशुभकर्मभेदानाम्. 2 D निजज्ञानस्य. 3 D केवलज्ञानाभेदमतिज्ञानादि. 4 शरीरस्यान्तः अन्तःशरीरं तस्मात् मोक्षसिद्धिर्यदा भवति. 5 D शुद्धभावः । २४*१) 1 जीवकर्मणोईयो:. 2 नोनि र्यापकयोः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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