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________________ -२R] - सम्यक्त्वो विमानम् - 642) यो निश्चयं च व्यवहारमम्मात प्राध्य माध्यमलाये सूरिश्च शिष्यश्च स देशनायाः प्राप्नोनित तत्त्वेत.फळं विशालम् ॥ १९ 643) दृष्टै हि दर्शनवचांस्य नुमानपेये, पूर्वापरप्रवरयुक्त्यविरोधिते ऽर्थे । ऐतिमात्रशरणोऽस्ति सदा प्रमाण तद्वाध्यंगीर्भवति मत्तवच समाना ॥ २० 644) त्रैकालिकचतुर्वर्गपदार्थानखिलानपि । ग्राह्यत्याज्यतयागादि गमर्यन् परमागमः ।। २१ 645) जन्मस्थितिप्रविलयास्तदभिन्नदेहा वायथोमिनिचया विलयोपपस्या एकान्ततः क्षणिकशाश्वतपक्षपाते वन्ध्यादयः खलु गलन्ति कयाकलापाः॥२.२. नहीं है वह व्यवहार को ही सत्य इस प्रकार माना करता है। जिस प्रकार की सिंह को न जामनेवाला कोई पुरुष 'यह बालक सिंह है' ऐसा कहने पर किसी बालक को ही सिंह समदाता है॥ १८ ॥ इस कारण जो आचार्य और शिष्य निश्चय और व्यवहार दोनों को जानकर- उनके विषय में मध्यस्थ वृत्ति का अस्श्रय लेते हैं - उनमें से किसी एकका ही आश्रय नहीं लेते हैं किन्तु विवक्षावश यथास्थान उन दोनोंका ही उपयोग किया करते हैं वे वास्तव में देशना के देने व सुनने के महान् फल को प्राप्त करते हैं ।। १९ ॥ पूर्व विषय की और उत्तर विषय की जो निर्दोष युक्तियाँ उनसे. अविरुद्ध सिद्ध हुए जीवादिक पदार्थ देखने पर तथा उनका वचन से खुलासा करने पर प्रत्यक्ष ज्ञान होता है तथा उनका स्पष्टीकरण किया जाता है। तथा उनका अनुमान के द्वारा निश्चय करते हैं। इन विषयों के प्रतिपादक गुरु हमको शरण हैं । इन पदार्थों के प्रमाणों को बाधित करनेवाली भाषा मत मनुष्य के वचन समान है ॥ २० ॥ जो भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल सम्बन्धी धर्म, अर्थ, काम व मोक्षरूप चार पुरुषार्थ के साधनभूत समस्त ही जीवादिक पदार्थों को ग्राहय (उपादेय) और त्याज्य स्वरूपसे ज्ञात करने वाला है, उसे श्रेष्ठ आगम कहते हैं ॥ २१ ॥ _उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये धर्म वस्तु से इस प्रकार अभिन्न हैं. जिस प्रकार कि १९)1 व्यवहारात्, D सर्वज्ञकथितात्. 2 प्रकर्षेण ज्ञात्वा । २०) 1 D कथिते. 2 D जिनवचांसि 3P° ऐतेहय. 4 तस्य बाधाकरः, D प्रमाणबाधिता वाणी.5D उन्मत्तवचः । २१), 1D धर्मार्थकाम. मोक्ष. 2 D जानन् । २२) 1 उत्पादध्रौव्यव्ययास्तैरभिन्ना: पदार्थाः, D रुवव्ययोत्पत्त्यादयः पदार्थाः. 2 समुद्रस्य. 3 PD°निचयाद्विल°.4 एकान्ते क्षणिके शाश्वते पक्षे. 5 निष्फलाः, D आश्रबंधादयो क्रियाः ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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