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________________ -९. १६*१] - सम्यक्त्वोत्पत्तिप्रकाशनम् - 637) आप्ता अतीन्द्रियदृशो यदि नापि सन्ति । सन्त्येव संप्रति तथापि हि तन्निकाशाः । येषां परोक्षवरयुक्तिषु संविभान्ति । प्रत्यक्षवत्त्रिसमयप्रतिबद्धभावाः ॥ १६ 638) तदुक्तम् भर्तारः कुलपर्वता इव भुवो मोहं विहाय स्वयं रत्नानां निधयः पयोधय इव व्यावृत्तवित्तस्पृहाः । स्पृष्टाः कैरपि नो नभो विभुतया विश्वस्य विश्रान्तये। सन्त्यद्यापि चिरन्तनान्तिकचराः सन्तः कियन्तो ऽप्यमी ॥ १६*१ आश्रयभूत वक्ता के सदोष होने से समीचीन वाणी भी विकृत हो जाती है । तथा जिस प्रकार गंगा आदि तीर्थ को प्राप्त हुआ जल अतिशय सेवनीयं होता है उसी प्रकार तीर्थंकर आदि सुयोग्य वक्ता के आश्रित हुई वह वाणी भी अतिशय आराधनीय हुआ करती है ॥ १५ ॥ ..यद्यपि इस समय अतीन्द्रिय वस्तुओं के जानने-देखने वाले आप्त नहीं भी हैं, तो भी उन के समान महापुरुष आज भी इस जगत् में विद्यमान हैं। जिनकी परोक्ष निर्दोष युक्तियों में त्रिकालवी जीवादिक पदार्थ प्रत्यक्ष के समान झलकते हैं, अर्थात् अपनी निर्दोष युक्तियों से वे उत्पाद व्यय व ध्रौव्युक्त पदार्थों का ऐसा सुन्दर विवेचन करते हैं कि जिसको सुनकर हम लोग मानो उनको प्रत्यक्ष देख रहे हैं, ऐसा भास होने लगता है ॥ १६ ॥ वही कहा है जिस प्रकार कुलपर्वत मोह (स्वार्थ) से रहित हो कर पृथिवी को धारण करते हैं, उसी प्रकार जो मोह से रहित हो कर पृथिवी को धारण करते हैं- पृथिवीतलपर स्थित समस्त प्राणियों का उद्धार करते हैं। जिस प्रकार समुद्र असंख्य रत्नों के भण्डार होकर भी कभी उनकी इच्छा नहीं करते हैं उसी प्रकार जो सम्यग्दर्शनादिरूप रत्नों के आश्रय होकर भी धन की अभिलाषा कभी नहीं करते हैं। तथा जिस प्रकार व्यापक आकाश अनन्त पदार्थोंको आश्रय दे कर भी उनसे स्पृष्ट-संश्लिष्ट-नहीं होता है, उसी प्रकार जो व्यापक-महान्-होनेसे लोक के समस्त प्राणियों को आश्रय देते हुए भी उनसे स्पष्ट-लिप्त-नहीं होते हैं । ऐसे कितने ही ये महापुरुष प्राचीन महर्षियों के अन्तिकचर-निकटवर्ती शिष्य- आज भी (वर्तमान काल में भी) विद्यमान हैं ॥ १६*१।। १६) 1 केवलदशिनः D °आस्तां अतीन्द्रिय , तिष्ठतु. 2 अधुना. 3 हितप्रकाशकाः पदार्थात, D हितवाञ्छकाः. 4 शोभन्ते. 5 पदार्थाः । १६*१) 1 दानाय ।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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