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________________ १६४ - धर्मरत्नाकरः - [९. १२*१नियतं न बहुत्वं चेत्कथमेते तथाविधाः। तिथिताराग्रहाम्भोधिभूभृत्मभृतयो मताः ॥ १२*१ 633 ) इत्यादिभिः प्रागपि सूचिताभिः सुयुक्तिभिर्देववर विविच्यं ।। तत्पादपद्मद्वययानपात्राश्रितास्तरन्त्येव भवाम्बुराशिम् ॥१३ 634) अत्र व्यतिरेकोक्तम्- . . ये ऽविचार्य परं देवं रुचि तद्वाचि कुर्वते । ते ऽन्धास्तत्स्कन्धविन्यस्तहस्ता वाञ्छन्ति सद्गतिम् ॥ १३*१ 635) जीवानां हि क्वचित्क्षेत्रे यथा मन्दकषायता । तथा देष्टुविशुद्धत्वे देशनायाः सुबुद्धता ॥ १४ ॥ .. 636) वाणी साध्व्यप्यसाध्वी स्यात्पात्रदोषेण दुग्धवत् । उच्चैः सेवनमस्याः स्यात्तीर्थप्राप्तं पयो यथा ॥ १५ यदि बहुतपना नियत नहीं होता तो ये तिथि, तारा, ग्रह, समुद्र और पर्वत आदि पदार्थ उस प्रकार के - बहुत- कैसे माने गये हैं ? इस से एकत्व के समान बहुत्व भी प्रमाण सिद्ध है, यह निश्चित होता है ।। १२*१॥ __इन को आदि लेकर जो उत्तम युक्तियाँ पूर्व में भी निर्दिष्ट की जा चुकी हैं, उन से देवों में श्रेष्ठ आप्त का विवेचन-विचार-कर के जो भव्य उस के दोनों चरणकमलरूप नावका आश्रय लेते हैं, वे ही संसाररूप समुद्र को पार करते हैं । संसार के दुःखों से छूटकर मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं ।। १३ ॥ ... यहाँ व्यतिरेक स्वरूप से कहा गया श्लोक जो उत्तम देव के विषय में विचार न करते हुए उसके वचन में रुचि (श्रद्धा) रखते हैं वे अन्धे अन्धे के (अथवा उस अविचारित देव के) कन्धे पर हाथ रख कर सद्गति की प्राप्ति की इच्छा करते हैं, जो सर्वथा असंभव है ॥१३* १॥ जैसे किसी विशिष्ट क्षेत्र में जीवों में मंद कषायता होती है वैसे ही उपदेशक की विशुद्धि से- उस के परिणामों के राग द्वेष व मिथ्यात्व से रहित होने से- उस के उपदेश में सुबुद्धता होती है ॥ १४ ॥ जिस प्रकार आश्रयभूत वर्तन के दोष से मधुर दूध विकृत हो जाता है, उसी प्रकार १३) 1 PD सर्वज्ञम्. 2 विचारयित्वा । १३*१) 1 D अन्धस्य. 2 शोभनमार्गः । १४) 1 सम्य. क्त्वनिर्मलत्वे । १५) 1 वाणी शुद्धापि कुमनुष्ये कुपात्रे श्रिताशुद्धा भवति, यथा कुभाजने पतितं शुद्धं दुग्धं पाशुद्धं भवति. सा वाणी उच्चैः उच्चस्थानेषु पात्रेषु श्रिता पूज्या भवति तीर्थप्राप्तजलवत्. 2 D भवेत्. 3D • सेव नमस्या ,नमस्करणीया।
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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