________________
-९.११२]
- सम्यक्त्वोत्पत्तिप्रकाशनम् - 628 ) अश्मा हेम जलं मुक्ला द्रुमो वह्निः शितिर्मणिः ।
तत्तद्धेतुप्तया भावां भवन्त्यद्भुतसंपदः ॥ १.१४२ 6291) भावस्थितिसंहारग्रीष्मवर्षातुषारवत् ।
अनावनातभावो ऽयमाप्तश्रुवसमाश्रयः ॥१०*३ 630) स्वर्णानीवास्तसंख्यानि धातवः शुद्धियोगतः।।
भवन्त्याप्ता हि दृष्टेष्टविरोधाभावतो नराः ॥ ११ 631 ) श्रुलसजसंतानो मदिर्बोजाङ्करादिस्त्'।
___ मूलक्षतिकरी नास्मादनवस्था न दूषणम् ॥ १२
632) तदुक्तम् - प्रतिबन्ध (बाधा) नहीं होता। क्योंकि, यन्त्र के द्वारा पातालका भी पानी अपने हाथ में कर लिया जाता है ॥ १०२१ ॥
विभिन्न प्रकार के योग्य निमित्तों को प्राप्त कर के पदार्थ आश्चर्यजनक सम्पत्ति, स्वरूप परिणत हुआ करते हैं । जैसे- अनुकूल निमित्त को पाकर पत्थर सोना बन जाता है, जल मोती बन जाता है, वृक्ष अग्नि बन जाता है और पृथिवी मणि बन जाती है ॥ १०*२॥
उत्पत्ति, अवस्थान और विनाशयुक्त ग्रीष्म, वर्षा और शीत ऋतुओं के समान पदार्थों का..यह अनादि अनन्त स्वभाव. आप्त व आगम का आश्रित है- उनके आश्रय से जाना जाता है.॥१०॥३॥
जिस प्रकार शुद्धि के सम्बन्ध से पाषाणरूपधातुएँ असंख्यात सुवर्ण हो जाती हैं, उसी प्रकार शुद्धि के सम्बन्ध से - तपश्चरण जनित निर्मलता के आश्रय से- मनुष्य आप्त हो जाते हैं, इस में न तो प्रत्यक्षसे बाधा आती है और न अनुमान के भी बाधक होने की संभावना है ॥ ११॥
आगम और सर्वज्ञ की परम्परा-सर्वज्ञं से आगम की उत्पत्ति और आगम से सर्वज्ञ की उत्पत्ति इस प्रकार की यह निरन्तर परम्परा - बीज और अंकुर आदि के समान अनादि है । इसलिये अनवस्था मूलतत्त्वका नाश करनेवाली नहीं है और वह दूषण यहाँ लागू नहीं होता ॥ १२॥
.. सो ही कहा गया है
१०*२) 1 PD-पाषाण: 2 स्वर्णम्. 3 शुक्तिजलं मुक्ताफलं भवति. D जलं मुक्ताफलं. 4 पृथ्वी 5 पदार्मा। १०*३): 1 उत्पादरीव्यव्ययस्वरूपम्. D °स्वर्गावस्थिति ° स्वर्गे स्थितिः पुनः संहारो यथा केनापिनाकृतं तथा आप्तश्रुतः।११)1D पाषाणा:. 2 प्रत्यक्ष । १२) 1 D यत्र सर्वज्ञस्तन श्रुतं बीजबुसवत्।