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- धर्मरत्नाकरा
624) तदुक्तम् -
तत्त्वभावनयोद्भूतं जन्मान्तरसमुत्थया । हिताहितविवेकाय यस्य ज्ञानमयं परम् ॥ ९* १ 625 ) दृष्टादृष्टमवैत्यर्थं रूपवन्तं तथावधिः ।
श्रुतेः श्रुतिसमायं क्वासौ परमपेक्षताम् ॥ ९* 626) कस्यादेशात्क्षपयति तमः सप्तसप्तिः प्रजानां
छायाहेतोः पथि विटपं नामञ्जलिः केन बद्धः । ! अभ्यर्थ्यन्ते जलकणः केन वा वृष्टिहे तोर्जात्यैवायं कलिलकषणः स्वात्मनिर्वाध बोधः ॥ १०० 627) इति प्रसिद्ध -
उपाये सत्युपेयस्य प्राप्तेः का प्रतिबन्ध । पातालस्थं जलं यन्त्रात्करस्थं क्रियते यतः ।। १०१
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वही कहा है
पूर्व जन्म में प्राप्त हुई जीवादि तत्त्वोंकी भावना से तीर्थकरों के ये तीन उत्तमज्ञान जन्म से ही होते हैं । इनसे उन्हें हित और अहित का विवेक होता है। इन में मतिज्ञान से वे प्रत्यक्ष और परोक्ष पदार्थों को अवधिज्ञान से रूपी पदार्थों को और श्रुतज्ञान से द्वादशांग श्रुत में कहे हुए आचारादिकों को जानते हैं । इसीलिये उन्हें तत्त्वज्ञान के लिये अन्य गुरु आदि की अपेक्षा कहाँ से होती है ? अतएव उक्त अनवस्था दोष सम्भव नहीं है ॥ ९*१-२ ॥
सूर्य किसकी आज्ञा से प्रजाजन के अन्धकार को नष्ट करता है । मार्ग में छाया के लिये वृक्षों को हाथ किसने जोडे हैं। तथा वृष्टि के लिये जलकणों को छोडनेवाले मेघों से प्रार्थना किसने की है ? अर्थात् किसीने भी नहीं की । तीर्थकरों को जन्म से ही पापनाशक और बाधारहित आत्मज्ञान होता है ॥ १० ॥
इस विषय में ये श्लोक प्रसिद्ध हैं -
उपाय के होनेपर उपेय की जो वस्तु हम चाहते हैं उसकी प्राप्ति होने में कोई
९* २ ) 1 जानाति १० ) 1D सूर्य: 2 वृक्षाणाम् 3 प्रार्थ्यन्ते. 4 P. D मेष : 5 स्वभावेन. 6 पापभक्षण:, D पापनाशक : 7 आत्मनः स्वभावजनितज्ञानः । १०* १ ) । 1 कार्यसिद्धिप्राप्ते 2 का निरोaar, को निषेधः, D निषेधता । ३ मृत्तिकाभाजनस्थम् ।