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________________ -९.९], - सम्यक्त्वोत्पत्तिप्रकाशनम् - 621 ) कौतस्कुतो ऽस्ति नियमस्तदियत्त्वकारी तेषामिदं विवदतामपि नः समं यत् । । आप्तो बभूव कपिलो ऽपि मनुष्य एव शौद्धोदनिः कणचरो ऽपि च जैमिनिश्च ॥८ 622) तदुक्तम्-- यश्चोभयोः समो दोषः परिहारो ऽपि तत्समः । नैका पर्यनुयोज्यः स्यात्तादृगावधारणे ॥ ८*१ 623) तेषां तु नौ ऽपि समयोचिततत्त्वदेष्टु - जन्मान्तरोत्थितविशुद्धिविरागयोगात् । ध्यानाग्नितो विमलतामुपयाति जीवे विश्वप्रकाशिमहिमा धुमणेरिवास्ति ॥ ९ अवस्था में उक्त आप्त की इतनी संख्या का - चोवीस तीर्थंकर की संख्या का नियम कहां से बन सकता है ? अर्थात् वह असंगत होगा। वादी की इस आशंका के उत्तर में यहाँ यह कहा जा रहा है कि जो वादीजन इस प्रकार का विवाद करते हैं, उनका यह आक्षेप हमारे समान ही है । जैसे हमने मनुष्य को आप्त माना है वैसे ही उक्तवादी जनों ने भी उसे मनुष्य ही माना हैं । यथा-सांख्यों के यहाँ जिस कपिल को आप्त माना गया है वह भी मनुष्य ही था इसी प्रकार शुद्धोदनका पुत्र बुद्ध, नैयायिकों का अभीष्ट आप्त कणाद और मीमांसकों को अभिमत जैमिनी ये सभी मनुष्य ही थे ॥७-८॥ वही कहा भी है वादी और प्रतिवादी दोनों के मध्य जो दोष समान होता है उसका परिहार भी समान ही होता है । ऐसी परिस्थिति में किसी एक के ही ऊपर आक्षेप करना उचित नहीं है ॥ ८*१॥ उपर्युक्त सांख्यादिक वादियों के यहाँ और हमारे यहाँ भी जो जीव समयानुसार तत्त्वका उपदेशक – आप्त-होता है वह पूर्व जन्म में उत्पन्न हुई विशुद्धि एवं वैराग्य के सम्बन्ध से ध्यानरूप अग्नि के निमित्त से निर्मलता को प्राप्त होने पर सूर्य के समान समस्त लोक को प्रकाशित करनेवाले माहात्म्य (सर्वज्ञता) से संयुक्त हो जाता है ॥ ९ ॥ ... ८) 1 इयत्त्वनियमकारी, D निश्चयकारी. 2 D अस्माकं. 3 D बौद्धः. 4 D भिवोजातःसि । (?) ८*१) 1 उपालम्भः . 2 D भवेत् । ९) 1 अस्माकम्. 2 P D सूर्यस्य । २१
SR No.090136
Book TitleDharmaratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaysen, A N Upadhye
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1974
Total Pages530
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size38 MB
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