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- धर्म रत्नाकरः -
618 ) दाहच्छेदकर्षाशुद्धे हेम्नि का शपथक्रिया । तदाहुः सुधियस्तत्त्वं रहःकुइँकवजितम् ॥ ६८ 619 ) ग्रहगोत्रगतो ऽप्येष पूर्षा पूज्यो न चन्द्रमाः । अविचारिततत्त्वस्य जन्तोर्वृत्तिनिरङ्कुशा ।। ६* ९ 620 ) आप्तः स्यान्मनुजः कथं भवतु वी तत्त्वावबोधः कुतस्तीर्थेशात्परतो ऽस्य तस्य परतश्चैषानवस्थालता ।
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तद्भावं तदभावमिच्छथ यदि स्वीकृत्य एकस्तदा
चारो नेतरजीववद्भगवतीं कण्ठीरवाणामिव ॥ ७
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इसका भी कारण यह है कि अग्नि में तपाना, काटना और कसौटी पर घिसना इन उपायों से सुवर्ण की निर्मलता के निश्चित होनेपर फिर उसके लिये सौगन्ध खाने की क्या आवश्यकता रहती है ? इसलिये उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् जो वस्तुस्वरूप एकान्त और प्रतारणा से रहित हो, उसे तत्त्व कहते हैं । ६*८।।
जिस प्रकार सूर्य ग्रह और गोत्र ( सूर्यवंश) से अनुगत है उसी प्रकार चन्द्र भी ग्रह व गोत्र से अनुगत है । फिर भी लोगों के द्वारा सूर्य की तो पूजा की जाती है, परन्तु चन्द्र की पूजा नहीं की जाती है । सो ठोक भी है, क्योंकि, तत्त्वविचार से रहित प्राणी की प्रवृत्ति बेरोकटोक हुआ करती है ॥६*९।।
यहाँ वादी कहता है कि तुम (जैन) जो मनुष्य को आप्त मानते हो सो यह कैसे संभव है ? अर्थात् मनुष्य को - जो कि स्वभावतः अल्पज्ञ व रागी -द्वेषी है – आप्त मानना उचित नहीं है । दूसरे यदि मनुष्य को भी आप्त मान लिया जाय तो यह भी विचारणीय होगा कि उसको तत्त्वज्ञान कहाँ से प्राप्त होता है । इसके उत्तर में यदि यह कहा जाय की उसे तत्त्वज्ञान तीर्थंकरसे प्राप्त होता है, तो पुनः यही प्रश्न खडा रहेगा कि उस तीर्थकर को भी वह तत्त्वज्ञान कहाँ से प्राप्त हुआ । इस पर यदि यह कहा जाय कि उसे अन्य तीर्थंकर से तत्त्वज्ञान प्राप्त हुआ तो इस प्रकार से उक्त प्रश्नोत्तरोंका पर्यवसान न होने से अनवस्था अनिवार्य होगा । अतएव यदि किसी एक को तत्त्वज्ञ स्वीकार कर के आप्त के सद्भाव और अन्यान्य तीर्थंकरों के अभाव को स्वीकार करते हो तो निर्वाह हो सकता है, क्योंकि सिंहों के समान आप्तों की ईश्वरों की सन्तति मानना योग्य नहीं है । और तब वैसी
६*८) 1 कशआर्घण, D कसोटी. 2 एकान्त. 3 P D कपट । ६* ९ ) 1 सूर्य: D भानु । ७) 1 D भवेत्. 2 D आप्तो मनुजो भवति तदा तत्त्वावबोधे कुतः 3D आप्तस्य सद्भावस्य अभाव इह यदि. 4 सर्वज्ञानाम् . 5 सिहानामिव., D अपरश्वापदवृन्दसमानो कण्ठीरवो न यथा तथा सर्वज्ञसमानो अपरो न ।