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- सम्यक्त्वोत्पत्तिप्रकाशनम् -
613 ) यस्यात्मनि श्रुते तत्त्वे चरित्रे मुक्तिकारणे । एकवाक्यतया वृत्तिराप्तः सो ऽनुमतः सताम् ॥ ६३ 614) स्वगुणैः श्लाघ्यतां याति स्वदोषैर्दृष्यतां जनः । रोषतोषौ वृथा तत्र' करुधौतायसोरिवं ॥ ६४
- ९.६*७ ]
615 ) द्रुहिणाधोक्षजे शानशाक्यंसूरपुरस्सराः ।
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यदि रागाद्यधिष्ठानं कथं तंत्राप्तता भवेत् ।। ६*५ 616) रागादिदोषसंभूतिरुक्तामीषु तदागमे ।
सतो ऽसतो ऽन्यदोषस्य गृहीतौ पातकं महत् ।। ६*६
617 ) एकान्तः शपथश्चेति वृथा तत्त्वपरिग्रहे । अन्तस्तत्त्वं न हीच्छन्ति परप्रत्ययमात्रतः ।। ६*७
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ग्रहण करता है - न वह ऊँच से अनुराग करता है और न नीच से द्वेष ही करता है - इसी प्रकार जो सचराचर विश्व को समान रूपसे ग्रहण करता हुआ - जानता हुआ- किसी से राग द्वेष नहीं करता है उस वीतराग सर्वज्ञ को आप्त समझना चाहिये || ६* २।।
आत्मा, आगम, जीवादिक तत्त्व और मोक्ष के कारणभूत चरित्र के विषय में जिसकी एक वाक्यता से वृत्ति है, अर्थात् इन विषयों का जिसका उपदेश पूर्वापर विरोध से रहित होता है उसे सज्जनों में- गणधरादि महर्षियोंने- आप्त माना है ॥६*३॥
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प्राणी अपने गुणों से प्रशंसा योग्य और अपने दोषों से निन्दा के योग्य होते हैं इसलिये सुवर्ण और लोह के समान गुणों व दोषों से संयुक्त उन दोनों के विषय में क्रोधित और हर्षित होना व्यर्थ है ॥६४॥
ब्रह्मदेव, विष्णु, महादेव, बुद्ध और सूर्य इत्यादि देव कहे जानेवाले यदि रागद्वेषों के आश्रय हैं - उन से व्याप्त हैं तो उन में आप्तता - सर्वज्ञता - कैसे हो सकती है ? ॥ ६५ ॥ इन देवों में रागादि दोषों की उत्पत्ति उनके आगम में कही गयी है । विद्यमान अथवा अविद्यमान अन्य के दोष के ग्रहण करने में बडा पातक होता है || ६*६॥
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वस्तु स्वरूप के ग्रहण में ' यह ऐसा ही है अन्यथा नहीं है, इस प्रकार का एकान्त ( दूराग्रह) और सौगन्ध ये दोनों ही निरर्थक हैं । क्योंकि सत्पुरुष अभ्यन्तर तत्त्वको - आत्म स्वरूप को - दूसरे के ज्ञान मात्र से ही स्वीकार नहीं करते हैं ।। ६७॥
६* ३ ) 1 सर्वज्ञः । ६*४ ) 1 जने 2 सुवर्णलोहयोर्द्वयोरिव । ६ *५ ) 1 ब्रह्मा. 2 विष्णु: 3 ईश्वरः. 4 बुद्ध:. 5 सूर्य:. 6 D°द्यधिष्ठाना:, मूलम्. 7 द्रुहिणादिषु 8 सर्वज्ञता । ६*६ ) 1 द्रुहिणादिषु. 2 सति.