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- धर्मरत्नाकरः - 608) सर्व देशाच्च सामान्याव्रतं शीलमितीरितम् ।।
द्वैध विशेषतो ऽदः स्याद्वक्ष्ये स्वावसरं क्रमात् ॥ ४ 609) चण्डालो ऽपि चतुर्वेदो यदाचरणतो भवेत् ।
अश्मेवं हेम तत्पाल्यं शीलं सर्वप्रयत्नतः ॥५ 610) सर्वज्ञवीतरागेण भुवनानुग्रहाय यत् ।
अनुष्ठान निधानं हि मुक्त्यै तद्गदितं ममा ॥६ 611) तदुक्तम् -
ज्ञानवान् मृग्यते कश्चित्तदुक्तप्रतिपत्तये ।
अज्ञोपदेशकरणे विप्रलम्मनशङ्किभिः ॥ ६*१ 612) उच्चावचप्रसूतीनां सत्त्वानां सदृशाकृतिः ।
य आदर्श इवाभाति स एव जगतां पतिः ॥ ६*२
सामान्य से शीलका अर्थ व्रत होता है । वह सर्व (महाव्रत) और देश (अणुव्रत) के भेदसे दो प्रकार का कहा गया है । इनका वर्णन मैं विशेष रूपसे अपने अवसर के अनुसार करूँगा ॥४॥
जिसके आचरण से सुवर्णपाषाण की सुवर्णरूपता के समान चाण्डाल भी चतुर्वेदीचार वेदों का ज्ञाता हो जाता है । उस शीलका पालन महान् प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ॥५॥
जो अनुष्ठान- व्रताचरण-रूप भण्डार समस्त लोक का उपकार करनेवाला है, उसे सर्वज्ञ वीतराग देव ने मुक्ति का कारण कहा है, जो प्रमाणभूत है ॥ ६ ॥
वही कहा है
अज्ञानी के उपदेश करने में विपरीतता या प्रतारणा की आशंका करने वाले सत्पुरुष इसके लिये उसके कथन को भक्तिपूर्वक स्वीकार करने के लिये किसी ज्ञानवान् को खोजा करते हैं ॥६१॥
जो ऊँच व नीच उत्पत्ति (अथवा उक्तियों) वाले प्राणियों को समान आकृतियुक्त दर्पण के समान सुशोभित होता है वह तीनों लोकों का स्वामी आप्त होता है । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार दर्पण ऊंच व नीच विविध प्रकार के प्राणियों की आकृति को समान रूपसे
४) 1 महाव्रताणुव्रतात्. 2 एतच्छीलम् । ५) 1 शीलस्य. 2 पाषाणात् सुवर्णवत् । ६) 1 प्रसादाय. 2 पीलम.3 प्रमाणम् । ६*२) 1 उत्कृष्टहीनोत्पत्तीनां जीवानां समानाकृतिः।