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[ ९. नवमो ऽवसरः ] [ सम्यक्त्वोत्पत्तिप्रकाशनम् ]
605 ) न्यवेदि दानं द्वयलोकं सौख्यदं निगद्यते शीलमदस्तथाविधम् । भवन्ति यस्याचरणान्निरन्तरं त्रिलोकचूडामणयः परं नराः ॥ १
606) शीलं विनिर्मलकुलं सहगामिबन्धुः
शीलं बलं निरुपमं धनमेव शीलम् । पाथेयमक्षयमलं निरपायरक्षा
साक्षादियद्गुणमिति प्रवदेज्जिनेन्द्रः ॥ २
607) भवति यतः पुरुषार्थः ' साध्यः सर्वस्य सत्स्वरूपं तु । सम्यगवबोध विद्धं व्रतमिह पुरुषार्थसिद्धयुपायो ऽस्ति ॥ ३
इस लोक और परलोक में सुख देनेवाले दानका विवेचन किया जा चुका है । अब यहाँ उभयलोक में सुखप्रद उस शील को कहता हूं, जिसके निरन्तर आचरणसे पुरुष निरन्तर त्रैलोक्य के चूडामणि ( शिरोभूषण) के समान उत्कृष्ट हो जाते हैं ॥ १ ॥
शील मनुष्यका निर्दोष कुल है, वह उसके साथ जानेवाला बन्धु है - मित्र है - शील अनुपम बल है, शील धन ही है तथा वह कभी समाप्त न होनेवाला संबल (नाश्ता) है । वह प्राणियों की निर्बाध रक्षा करता है । उसमें साक्षात् इतने गुण हैं, ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है ॥ २ ॥
जिस से सब प्राणियों को पुरुषार्थंकी - मोक्ष की, जो कि आत्मा का स्वरूप है, सिद्धि होती है, वह सम्यग्ज्ञान से संबद्ध व्रत है और वह यहाँ पुरुष के प्रयोजनभूत मोक्ष की सिद्धि का कारण है ॥ ३॥
१) 1 अकथि 2 इहलोकपरलोक. 3 शीलस्य । २ ) 1 संबलम् । ३) 1 शीलतः 2 धर्मार्थकाममोक्षाः अथवा सोक्ष 3 पुरुषार्थ. 4 शीलव्रतम् ।